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पुरातत्त्व-प्रसङ्ग


ख़ायस्ता का स्तूप कहते हैं। "ख़ायस्ता" का अर्थ है—विशाल। और यह स्तूप सचमुच ही बहुत विशाल है। यह बहुत अच्छी दशा में भी है। जिस समय फ़ाहीन नाम का चीनी परिव्राजक हिद्दा के पवित्र तीर्थ का दर्शन करने आया था उस समय वहाँ पर एक अभ्रङ्कष बौद्ध-विहार था। उसके विषय में उसने लिखा है कि धरातल चाहे फट जाय और आकाश चाहे हिंडोले की तरह हिलने लगे, पर यह विहार अपने स्थान से इंच भर भी हटने-वाला नही।

हिद्दा में कई स्तूप थे। उनमें बुद्ध भगवान् के शरीराशिष्ट अंश—शीर्षास्थि, दाँत और दण्ड आदि— रक्षित थे। उनकी रक्षा और पूजा-अर्चा के लिए कपिशा के राजा ने कुछ पुजारी नियत कर दिये थे। जिस स्तूप में बुद्ध के सिर की अस्थि रक्खी थी उसका दर्शन करने वालों को एक सुवर्णमुद्रा देनी पड़ती थी। जो यात्री भोम इत्यादि पर उस अस्थि का चित्र अर्थात् प्रतिलिपि लेना चाहते थे उनसे पॉच सुवर्ण-मुद्रायें ली जाती थीं। इसी तरह अन्यान्य शरीरांशों के दर्शनों की भी फीस नियत थी। फिर भी इतने दाम देकर भी दर्शनार्थियों की भीड़ लगी ही रहती थी। इन बातों का उल्लेख चीन के प्रसिद्ध परित्राजक हु-एन-सङ्ग ने, अपनी यात्रा-पुस्तक में, किया है। उसने लिखा है कि बुद्ध के