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मन्त्र


और दिन उन्होंने उस आदमी को दुत्कार दिया होता ; मगर आज बाहर निकल आये। देखा, एक बूढ़ा आदमी खड़ा है, कमर झुकी हुई, पोपला मुँह, भौंहें तक सफेद हो गई थीं। लकड़ी के सहारे काँप रहा था। बड़ी नम्रता से बोले--क्या है भई, आज तो हमारे ऊपर ऐसी मुसीबत पड़ गई है कि कुछ कहते नहीं बनता, फिर कभी आना। इधर एक महीना तक तो शायद मैं किसी मरीज़ को न देख सकूँगा।

भगत ने कहा--सुन चुका हूँ बाबूजी, इसीलिये आया हूँ। भैया कहाँ हैं, ज़रा मुझे भी दिखा दीजिये। भगवान् बड़ा कारसाज़ है, मुरदे को भी जिला सकता है। कौन जाने, अब भी उसे दया आ जाय !

चड्ढा ने व्यथित स्वर से कहा--चलो देख लो ; मगर तीन-चार घण्टे हो गये। जो कुछ होना था हो चुका। बहुतेरे झाड़ने-फूँकनेवाले देख-देखकर चले गये।

डाक्टर साहब को आशा तो क्या होती, हाँ बूढ़े पर दया आ गई ; अन्दर ले गये। भगत ने लाश को एक मिनट तक देखा। तब मुसकराकर बोला--अभी कुछ नहीं बिगड़ा है बाबूजी। वाह ! नारायन चाहेंगे, तो आध घण्टे में भैया उठ बैठेंगे। आप नाहक दिल छोटा कर रहे हैं। ज़रा कहारों से कहिये, पानी तो भरें।

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