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मर्यादा की वेदी


भाँति इधर-उधर उड़ता फिरता था। वह झालावाड़ को मारकाट से बचाने के लिए राणा के साथ आई थी,मगर राणा के प्रति उसके हृदय में क्रोध की तरंगें उठ रही थीं। उसने सोचा था कि वे यहाँ आयेंगे तो उन्हें राजपूत कुल-कलंक, अन्यायी, दुराचारी, दुगत्मा, कायर कहकर उनका गर्व चूर-चूर कर देंगी। उसको विश्वास था कि यह अपमान उनसे न सहा जायगा और वे मुझे बलात् अपने काबू में लाना चाहेंगे। इस अन्तिम समय के लिए उसने अपने हृदय को खूब मजबूत और अपनी कटार को खूब तेज कर रखा था। उसने निश्चय कर लिया था कि इसका एक वार उनपर होगा, दूसरा अपने कलेजे पर और इस प्रकार यह पाप-काण्ड समाप्त हो जायगा। लेकिन राणा की नम्रता, उनकी करुणात्मक विवेचना और उनके विनीत भाव ने प्रभा को शान्त कर दिया। आग पानी से बुझ जाती है। राणा कुछ देर वहाँ बैठे रहे, फिर उठकर चले गये।

प्रभा को चित्तौड़ में रहते दो महीने गुज़र चुके हैं। राणा उसके पास फिर न आये। इस बीच में उनके विचारों में बहुत कुछ अन्तर हो गया है। झाला-वाड़ पर आक्रमण होने के पहले मीराबाई को इसकी बिल्कुल ख़बर न थी। राणा ने इस प्रस्ताव को गुप्त रखा था। किन्तु अब मीराबाई प्रायः उन्हें इस दुराग्रह पर लज्जित किया करती है और धीरे-धीरे राणा को भी विश्वास होने लगा है कि प्रभा इस तरह काबू में नहीं आ सकती। उन्होंने उसके सुख-विलास की सामग्री एकत्र करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी। लेकिन प्रभा उनकी तरफ़ आँख उठाकर भी नहीं देखती। राणा प्रभा की लौंड़ियों से नित्य का समाचार पूछा करते हैं और उन्हें रोज़ वही निराशापूर्ण वृत्तान्त सुनाई देता है। मुरझाई हुई कली किसी भाँति नहीं खिलती। अतएव उनको कभी-कभी अपने इस दुस्साहस पर पश्चात्ताप होता है। वे पछताते हैं कि मैंने व्यर्थ ही यह अन्याय किया। लेकिन फिर प्रभा का अनुपम सौन्दर्य नेत्रों के सामने आ माता है और वह अपने मन को इस विचार से समझा लेते है कि एक सगर्वा सुन्दरी का प्रेम इतना जल्दी परिवर्तित नहीं हो सकता। निस्सन्देह मेरा मृदु व्यवहार कभी न कभी अपना प्रभाव दिखलायेगा।