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नव-निधि


शाहज़ादा मुहीउद्दीन चम्बल के किनारे से आगरे की ओर चला तो सौभाग्य उसके सिर पर मोछल हिलाता था। जब वह आगरे पहुँचा तो विजयदेवी ने उसके सिंहासन सजा दिया!

औरंगजेब गुणज्ञ था। उसने बादशाही सरदारों के अपराध क्षमा कर दिये,उनके राज्य-पद लौटा दिये और राना चम्पतराय की उसके बहुमूल्य कृत्यों के उपलक्ष्य में बारह हज़ारी मन्सब प्रदान किया। ओरछा से बनारस और बनारस से जमुना तक उसकी जागीर नियत की गई। बुंदेला राजा फिर राज-सेवक बना,वह फिर सुख-विलास में डूबा और रानी सारन्धा फिर पराधीनता के शोक से घुलने लगी।

वली बहादुर खाँ बड़ा वाक्य-चतुर मनुष्य था। उसकी मृदुता ने शीघ्र ही उसे बादशाह आलमगीर का विश्वासपात्र बना दिया। उसपर राज-सभा में सम्मान की दृष्टि पड़ने लगी।

खाँ साहब के मन में अपने घोड़े के हाथ से निकल जाने का बड़ा शोक था। एक दिन कुँवर छत्रसाल उसी घोड़े पर सवार होकर सैर को गया था। वह खाँ साहब के महल की तरफ़ जा निकला। वली बहादुर ऐसे ही अवसर की ताक में था। उसने तुरत अपने सेवकों को इशारा किया। राजकुमार अकेले क्या करता ? पाँव-पाँव घर आया और उसने सारन्धा से सब समाचार बयान किया। रानी का चेहरा तमतमा गया। बोली,"मुझे इसका शोक नहीं कि घोड़ा हाथ से गया,शोक इसका है कि तू उसे खोकर जीता क्यों लौटा? क्या तेरे शरीर में बुंदेलों का रक्त नहीं है? घोड़ा न मिलता न सही,किन्तु तुझे दिखा देना चाहिए था कि एक बुंदेला बालक से उसका घोड़ा छीन लेना हँसी नहीं है।"

यह कहकर उसने अपने पच्चीस योद्धाओं को तैयार होने की आज्ञा दी,स्वयं अस्त्र धारण किये और योद्धाओं के साथ बली बहादुरखाँ के निवासस्थान पर जा पहुँची। खाँ साहब उसी घोड़े पर सवार होकर दरबार चले गये थे,सारन्धा दरवार की तरफ चली,और एक क्षण में किसी वेगवती नदी के सदृश बाद-शाही दरबार के सामने जा पहुँची। यह कैफियत देखते ही दरबार में हलचल मच गई। अधिकारी वर्ग इधर-उधर से श्राकर जमा हो गये। आलमगीर भी