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  इस समय मायारानी की आंखों के सामने पहाड़ी गुलबूटों से हरा-भरा एक चौखूटा मैदान था, जिसकी लम्बाई चार सौ गज और चौड़ाई साढ़े तीन सौ गज से ज्यादे न होगी। यह मैदान चारों तरफ से ढालवी और सरसब्ज पहाड़ी से घिरा हुआ था जिस पर के पेड़ों और सुन्दर सुन्दर लताओं के बीच से निकल कर नीरोग हवा के नर्म-नर्म झपेटे आ रहे थे। सामने की तरफ पहाड़ी की आधी ऊंचाई से झरना गिर रहा था, जिसका बिल्लौर की तरह साफ जल नीचे आकर बारीक और पेचीली नालियों का सा आनन्द दिखलाता रमने के हुआ खुशनुमा कोमल और सुन्दर फूलपत्तों वाले पौधों को तरी पहुंचा रहा था। खुशनुमा और मीठी बोलियों से दिल लुभा लेने वाली छोटी-छोटी चिड़ियों की सुरीली आवाजों में दबी हुई रसीले फूलों पर घूम-घूमकर बलाएं लेते हुए मस्त भौरों के परों की आवाज कमजोर उदास और मुरझाए दिल को ताकत और खुशी देने के साथ चैतन्य कर रही थी। इस स्थान के आधे हिस्से पर इस समय अपना दखल जमाए हुए सूर्य भगवान की कृपा ने धूप-छांह की हुबाबी चादर इस ढंग से बिछा रखी थी कि तरह-तरह की चिन्ताओं और खुटकों से विकल मायारानी को लाचार होकर मस्ती और मदहोशी के कारण थोड़ी देर के लिए अपने को भुला देना पड़ा और जब वह कुछ होश में आई तो सोचने लगी कि ऐसे अनूठे स्थान का अपूर्व आनन्द लेने वाला भी कोई यहां है या नहीं। इस विचार के साथ ही दाहिनी तरफ पहाड़ी पर बने हुए एक खुशनुमा बंगले पर उसकी निगाह जा पड़ी मगर उसे अच्छी तरह देखने भी न पाई थी कि दारोगा साहब हंसकर बोल उठे, "अब यहां कब तक खड़ी रहोगी, चलो आगे बढ़ो।

जिस जगह मायारानी खड़ी थी उसकी ऊंचाई जमीन से लगभग बीस-पचीस गज के होगी। नीचे उतरने के लिए छोटी-छोटी सीढ़ियां बनी हुई थी जिन पर पहले दारोगा ने अपना मनहूस (अमंगल) कदम रखा और उसके पीछे-पीछे मायारानी रवाना हुई।

ये दोनों उस खुशनुमा जमीन की कुदरती क्यारियों पर घूमते हुए उस पहाड़ी के नीचे पहुंचे, जिस पर वह खूबसूरत बंगला बना हुआ था और उसी समय दो आदमियों को पहाड़ी से नीचे उतरते हुए देखा। बात-की-बात में ये दोनों आदमी दारोगा के पास आ पहुंचे और दण्ड-प्रणाम के बाद बोले, "इन्द्रदेवजी ने आपको दूर ही से देखकर पहचान लिया, मगर मायारानी को न पहचान सके जो इस समय आपके साथ हैं।"

यह जानकर मायारानी को आश्चर्य हुआ कि यहां का हर एक आदमी उसे अच्छी तरह जानता और पहचानता है मगर इस विषय में कुछ पूछने का मौका न समझकर वह चुप हो रही। बाबाजी ने दोनों ऐयारों से पूछा, "कहो कुशल तो है? इन्द्रदेव अच्छे हैं?

एक—जी हाँ, बहुत अच्छे हैं मगर यह तो कहिये आपने नाक पर यह पट्टी क्यों बांधी हुई है?

दारोगा—इसका हाल इन्द्रदेव के सामने कहूंगा, उसी समय तुम भी सुन लेना चलो जल्द चलें भूख-प्यास और थकावट से जी बेचैन हो रहा है।

ये चारों आदमी पहाड़ी के ऊपर चढ़ने लगे। यद्यपि इन सभी को बहुत ऊंचे नहीं चढ़ना था परन्तु मायारानी बहुत थकी और सुस्त हो रही थी इसलिए बड़ी कठिनाई के साथ चढ़ी और ऊपर पहुंचने तक मामूली से बहुत ज्यादा देर लगी। ऊपर पहुंचकर मायारानी ने देखा कि वह बंगला छोटा और साधारण नहीं है बल्कि बहुत बड़ा और अच्छे ढंग का बना हुआ है मगर यहां पर इस मकान की बनावट तथा उसके सुन्दर सुन्दर कमरों की सजावट का हाल न लिखकर मतलब की बातें लिखना उचित जान पड़ता है।

उस समय इन्द्रदेव अगवानी के लिए स्वयं बाहर निकल आया जब ये दोनों आदमी उस कमरे के पास पहुंचे, जिसमें वह रहता था। वह इन दोनों से बड़े तपाक से मिला और खातिर के साथ अन्दर ले जाकर बैठाया।

इन्द्रदेव—(दारोगा से) आपके और मायारानी के कष्ट करने का सबब पूछने के पहले मैं जानना चाहता हूं कि आपने नाक पर पट्टी क्यों बांध रखी है?

दारोगा—तुमसे विदा होकर मैंने जो कुछ तकलीफें उठाई है यह उसी का नमूना है। जब मैं जरा दम लेने के बाद अपना किस्सा तुमसे कहूंगा, तब सब हाल मालूम हो जायगा, इस समय भूख-प्यास और थकावट से जी बेचैन हो रहा है।

दारोगा का जवाब सुन कर इन्द्रदेव चुप हो रहा और फिर कुछ बातचीत न हुई। दरोगा और मायारानी के खाने पीने का उत्तम प्रबन्ध कर दिया गया और उन दोनों ने कई घण्टे तक आराम करके अपनी थकावट दूर की। जब संध्या होने में थोड़ी देर बाकी थी तब इन्द्रदेव स्वयं उस कमरे में आया जिसमें दारोगा का डेरा पड़ा हुआ था। वह कमरा इन्द्रदेव के कमरे के बगल ही में था और उसमें जाने के लिए केवल एक मामूली दर्वाजा था। उस समय मायारानी दारोगा के पास बैठी अपना दुखड़ा रो रही थी। इन्ददेव के आते ही वह चुप हो गई और बाबाजी ने खातिर के साथ इन्ददेव को अपने बगल में बैठाया।

देवकीनन्दन खत्री समग्र५०८