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दुर्गेशनन्दिनी।


उस अवस्था में स्वप्न हुआ मुँह का रंग पलटने लगा ओठ काँपने लगे और ललाट में पसीना हो आया और हाथों की मुट्ठी बंध गई।

एकाएक चमक उठे और इधर उधर टहलने लगे। यह यन्त्रणा कब तक रही मालूम नहीं। जब प्रातःकाल सूर्य के किर्ण से चहुदिक प्रकाश हुआ उस समय जगतसिंह भूमि पर बिना बिछौना पड़े सो रहे थे।

उसमान ने आकर उनको उठाया। जब वे उठे उसमान ने उनके हाथ में एक पत्र दिया। पत्र हाथ में ले राजकुमार चुप चाप उनका मुँह देखने लगे। उसमान ने समझा राजकुमार इस समय सोच में हैं अतएव इनसे किसी प्रयोजन की बातचीत अभी नहीं हो सकती, बोला।

राजकुमार! मुझ को आप के भू शयन का कारण पूछने की विशेष आकांक्षा नहीं है पर जिसने यह पत्र दिया है उसको मैं बचन दे आया हूँ कि यह पत्र आपही के हाथ में दूँगा अभी तक मैंने आपको नहीं दिया था उसका एक कारण था अब वह दूर हुआ आप सब बातें जान गए। इससे पत्र आप के पास छोड़ कर जाता हूँ आप अपने अवकाश में इसे पढ़ियेगा कल मैं फिर आऊँगा। यदि उत्तर देना चाहियेगा तो मैं भेज दूँगा। और पत्र रखकर उसमान चला गया।

राजकुमार ने अकेले बैठ पत्र को आद्योपान्त पढ़ा फिर उसको मेज़ पर धर के फूंक दिया और जब तक वह जल कर भस्म नहीं हो गया उसी की ओर देखते रहे। जब उसका कोई चिन्ह न रहा तो अपने मन में कहने लगे 'स्मारक चिन्ह तो आग में जला कर नाश करडाला पर स्मृति को क्या करूँ वह अभी तक बेदना दे रही है।'