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जहांगीरनामा।

"मद्य मतवालेका तो शत्न है और सावधानका मित्र है। थोड़ा तो औषधि है और ज्यादा सांपका विष । बहुत पीने में थोड़ी हानि नहीं है और थोड़ीमें बहुत लाभ है।"

निदान बहुत हठसे उसको शराब दीगई।

जहांगीर के शराबीपनकी कहानी।

इतना लिखने के पक्षात् बादशाह अपने शराबी होने की कहानी इम प्रकार लिखता है-

"मैंने १५ वर्षको अवस्था होजाने तक शराब नहीं पी थी परन्तु बचपनमें दो तीन बार मेरो मा और दाइयोंने दूसरे बच्चोंको देनेके बहाने मेरे पिताले अर्क मंगवाकर उसमेंसे एक. तोला गुलाबजलमें मिलाकर और खांसीको दवा कहकर मुझे पिलाया था। जब मेरे बापका उर्दू यूलपाजई पठानोंका दंगा दबानेके लिये नौलाब नदीके तट पर अटकके किले में था। तब एक दिन मैं शिकारको गया। श्रम बहुत करना पड़ा था इससे बड़ी थकावट आगई थी। उस्ताद शाहकुली नामक तोपचौने जो मेरे चचा मिरजा हकीसके तोपचियों का नायक था मुझसे कहा कि आप एक प्याला शराव पोलें यह थकावट जाती रहेगी।

वह जवानीके दिन थे और चित्त में ऐसी बातोंका चाव था। मैंने महसूद आबदारसे कहा कि हकीमअलौके घर जाकर नशेका शरबत लेगा।

इकौमने पोले रङ्गको डेढ़ प्याला मोठी शराब छोटे शीशेमें भेजी। मैंने उसको पी लिया। उसका नशा सुहावना लगा। फिर तो मैं शराब पीने लगा। यहांतक कि अंगूरी शराबंका नशा नहीं आने लगा तब अर्क पौना शुरू किया। नौ वर्षमें यह भी. इतना बढ़ गया कि बीस प्याले तक दुअआतिशा अर्कके पौनाता था.! चौदह प्याले दिनमें और ६ रात्रिमें पीता था जिनमें हिन्दुस्थानको तौलसे ६ सेर और ईरानको तौलसे डेढ़.मन शराब समाती थी। मैं उन दिनों में एका मुर्गका मांस रोटी और. मूलौके साथ खालेता था।