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संवत् १६६७।

चली गई थी और अब भी तीन गोलियां खाचुकी थी। बादशाह उसके पीछे पीछे फिरता रहा। निदान यह संकल्प किया कि जो यह नीलगाय गिरेगी तो इसका मांस ख्वाजे मुईनुद्दीनके अर्पण कर के फकीरोंको बांट दूंगा एक मोहर एक रूपया अपने बापके भी भेट करूंगा।

ऐसा कहतेही वह नीलगाय थककर गिरी और बादशाहने उस का मांस तथा मोहर और रुपयेका शीरा पकवाकर अपने सामने भूखों और फकीरोंको खिला दिया।

दो तीन दिन पीछे फिर एक नीलगायके पीछे बादशाह कंधे पर बन्दक रखे हुए शाम तक फिरता रहा परन्तु वह एक जगह नहीं ठहरती थी दिन छिपने पर उसके मारने से निराश होकर फिर बादशाहने कहा कि ख्वाजा यह नीली भी तुम्हारे नजर है यह कहना था कि वह बैठ गई और बादशाहने उसको बन्दूकसे मार कर उसका मांस भी उसी भांति फकीरों को खिला दिया।

चैत बदी ७ शनिवारको ३३० मछलियोंका शिकार हुआ।

१९ शनि (चैत बदी ३०) की रातको बादशाह रूपवासमें आगया। जो उसकी निज शिकारगाह थी और जिसके आसपास भी किसीको शिकार मारनेकी आज्ञा न थी। इससे वहां असंख्य हरन भर गये थे वह बस्ती में चले आते थे और सब प्रकारकी हानि से बचे रहते थे। बादशाहने दो तीन दिन वहां शिकार खेलकर बहुतसे हरन बन्दूकसे मारे और चीतोंसे मरवाये।


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