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संवत् १६६७।

लाठी थी वही उसने कई बार उनके मस्तक पर दी। अनूपरायने चल करके अपने हाथ सिंहके मुंह से छुड़ा लिये और दो तीन घूंसे जबड़े पर मारे और करवट लेकर घुटनेके बल उठ खड़ा हुआ। सिंहके दांत उसके हाथोंमें पार होगये थे इसलिये उसके मुंहसे हाथ खेंचे तो उस जगहसे फट गये और सिंहके नाखून भी उसको कन्धेसे निकल गये थे।

अनूपरायको खड़े होतेही शेर भी खड़ा होगया और उसकी छाती पर नाखून और पंजे मारने लगा। जिनके घावोंने कई दिन तक उसको व्याकुल रखा। फिर वह दोनो दो मल्लोंके समान एक दूसरे से लिपटकर उस ऊंची नीची धरतीमें लुढ़क गये। मैं जहां खड़ा था वह भूमि समान थी। अनूपराय कहता था कि पर- मेश्वरने मुझे इतना औसान दिया कि सिंहको मैं उधर लेगया और मुझे कुछ खबर नहीं है।

अब सिंह उसको छोड़कर चल देता है। अनूपराय उसी बेहोशी में तलवार सूंतकर उसके पीछे जाता है और उसके सिर पर मारता है। सिंह जो पीछेको मुंह फेरता है तो दूसरा हाथ फिर उस पर झाड़ता है जिससे दोनो आंखें उसकी कट जाती हैं और भंवोंका मांस कटकर आंखों पर आजाता है। उसी अवसर पर सालह नाम चरागची (नाई) घबराया हुआ आता है क्योंकि दीपक का समय होगया था सिंह एक ही तमांचे में उसको गिरा देता है। गिरना और मरना एक था। दूसरे आदमियोंने पहुंचकर सिंहको मार डाला।

अनूपरायसे इस प्रकारजी सेवा बन आई और उसका ऐसा जान लड़ाना देखा गया। घाव भर जानेके पीछे अच्छा होकर जब वह मुजरा करनेको आया तो मैंने उसको अनीराय सिंहदलनका खिताब दिया और कुछ उसका मनसब भी बढ़ाया। अनीराय हिन्दी भाषामें फौजके सरदारको कहते हैं ओर सिंहदलनका अर्थ शेर मारनेवाला है।