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सेवा है, और सुखदा को अभी इस क्षेत्र में आये हुए ही कितने दिन थे?

सड़क के दोनों ओर नर-नारियों की दीवार खड़ी थी और मोटर मानों उनके हृदय को कुचलती-मचलती चली जाती थी।

सुखदा के हृदय में गर्व न था, उल्लास न था, द्वेष था, केवल वेदना थी; जनता की इस दयनीय दशा पर, इस अधोगति पर जो डूबती हुई दशा में तिनके का सहारा पाकर भी कृतार्थ हो जाती है।

कुछ दूर के बाद सड़क पर सन्नाटा था, सावन की निद्रा सी काली रात संसार को अपने अंचल में सुला रही थी और मोटर अनन्त में स्वप्न की भाँति उड़ी चली जाती थी। केवल देह में ठण्डी हवा लगने से गति का ज्ञान होता था। इस अन्धकार में सुखदा के अन्तस्तल में एक प्रकाश-सा उदय हुआ। कुछ वैसा ही प्रकाश, जो हमारे जीवन की अन्तिम घड़ियों में उदय होता है, जिसमें मन की सारी कालिमाएँ, सारी ग्रन्थियाँ, सारी विषमतायें अपने यथार्थ रूप में नजर आने लगती हैं। तब हमें मालूम होता है कि जिसे हमने अन्धकार में काला देव समझा था, वह केवल तृण का ढेर था, जिसे काला नाग समझा था, वह रस्सी का टुकड़ा था। आज उसे अपनी पराजय का ज्ञान हुआ, अन्याय के सामने नहीं, असत्य के सामने नहीं, बल्कि त्याग के सामने और सेवा के सामने। इसी सेवा और त्याग के पीछे तो उसका पति से मतभेद हुआ था, जो अन्त में इस वियोग का कारण हुआ। उन सिद्धांतों में अभक्ति रखते हुए भी वह उनकी ओर खिचती चली आती थी और आज वह अपने पति की अनुगामिनी थी। उसे अमर के उस पत्र की याद आयी जो उसने शांतिकुमार के पास भेजा था और पहली बार पति के प्रति क्षमा का भाव उसके मन में प्रस्फुटित हुआ। इस क्षमा में दया नहीं, सहानुभूति थी, सहयोगिता थी। अब दोनों एक ही मार्ग के पथिक है, एक ही आदर्श के उपासक हैं। उनमें कोई भेद नहीं है, कोई वैषम्य नहीं है, आज पहली बार उसका अपने पति से आत्मिक सामंजस्य हुआ। जिस देवता को अमंगलकारी समझ रखा था, उसी की आज धूप-दीप से पूजा कर रही थी।

सहसा मोटर रुकी और डिप्टी ने उतर कर सुखदा से कहा—देवीजी, जेल आ गया। मुझे क्षमा कीजिएगा।

सुखदा ऐसी प्रसन्न थी, मानो अपने जीवन-धन से मिलने आयी है।

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कर्मभूमि