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विरह के अंग
लूटि सकै तो लुटियौ,राम नाम है लूटि । पीछे हो पछिताहुगे,यहु तन जैहे छूटि ।। २५ ।। लूटि सके तौं लूटियौं,राम नाम भंडार । काल कंठ तैं गहैगा,रूंधै दसू दुवार ।। २६ ॥ लंबा मारग दुरि घर,बिकट पंथ बहु मार । कहौं संतौं क्यूं पाइये,दुर्लभ हरि-दीदार ॥ २७ ॥ गुण गायें गुण नाम कटै,रटै न राम बिवोग । अह निसि हरि ध्यावै नहीं,क्यूं पावै द्रुलभ जोग ।। २८ ॥ कबीर कठिनाई खरी,सुमिरतां हरि-नाम । सूली ऊपरि नट विद्या,गिरूं त नाही ठाम ।। २६ ।। कबीर राम ध्याइ लै,जिभ्या सौं करि मंत । हरि सागर जिनि वीसरै,छीलर देखि अनंत ॥ ३० ।। कबीर राम रिझाइ लै,मुखि अंमृत गुण गाइ । फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन,संधे संधि मिलाइ ॥ ३१ ।। कबीर चित चमंकिया,चहुं दिसि लागी लाइ । हरि सुमिरण हाथूं घड़ा,बेगे लेहु बुझाइ ।। ३२ ॥ ६७ ।।
(३) बिरह को अंग रात्यूं रूंनी बिरहनीं,ज्यू बंचौ कू कुंज । कबीर अंतर प्रजल्या,प्रगट्या बिरहा पुंज ॥ १ ॥ अंबर कुंजां कुरलियाँ,गरजि भरे सब ताल । जिनि पैं गोबिंद बीछुटे,तिनके कौण हवाल ॥ २ ॥ चकवी बिछुटी रैंणि की,प्राइ मिली परभातिं । जे जन बिछुटे राम सुं,ते दिन मिले न राति ॥ ३ ॥