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कबीर-ग्रंथावली

 कबीर सूता क्या करै, गुण गोबिंद के गाइ।
 तेरे सिर परि जम खड़ा,खरच कदे का खाइ ॥ १४ ॥
 कबीर सूता क्या करै, सूता होइ अकाजं ।
 ब्रह्मा का पासण खिस्या,सुणत काल की गाज ॥ १५ ॥
 केसौ कहि कहि कूकिये, ना सोइयै असरार ।
 राति दिवस के कूकणैं,(मत) कबहूँ लगै पुकार ।। १६ ॥
 जिहि घटि प्रीति न प्रेम रस,फुनि रसना नहीं राम ।
 ते नर इस संसार में,उपजि षये बेकाम ॥ १७ ॥
 कबीर प्रेम न चषिया, चषि न लीया साव ।
 सूनें घर का पाहुणां,ज्यूं पाया त्यूं जाव ।। १८ ॥
 पहली बुरा कमाइ करि,बाँधी विष की पोट ।
 कोटि करम फिल पलक मैं,(जब) आया हरि की वोट ।। १९ ।।
 कोटि क्रम पेलै पलक मैं,जे रंचक आवै नाउँ ।
 अनेक जुग जे पुन्नि करै,नहीं राम बिन ठाउँ ॥ २०॥
 जिहि हरि जैसा जांणियां,तिन कूं तैसा लाभ ।
 प्रोसों प्पास न भाजई,जब लग धसै न अाभ ।। २१ ।।
 राम पियारा छाड़ि करि,करै पान का जाप ।
 बेस्खां केरा पृत ज्यूं,कहैं कौन सूं बाप ।। २२ ।।
 कबीर आपण राम कहि,औरां राम कहाइ।
 जिहि मुखि राम न उचरे,तिहि मुख फेरि कहाइ ॥ २३ ॥
 जैसे माया मन रमैं,यूं जे राम रमाइ ।
 (तौ)तारा-मंडल छाडि करि,जहाँ के सो तहाँ जाइ ॥ २४ ॥


 (१६) ख.में नहीं है।
 (१७) क-प्राइ संसार में
 (२३) ख-जा युष, ता युप ।