पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/९

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भूमिका

आज इस बात को पांच छः वर्ष हुए होंगे, जब काशीनागरी प्रचारिणी सभा में रक्षित हस्तलिखित हिंदी पुस्तकों की जाँच की गई थी और उनकी सूची बनाई गई थी। उस समय दो ऐसी पुस्तकों का पता चला जो बड़े महत्त्व की थीं, पर जिनके विषय में किसी को पहले कोई सूचना नहीं थी। इनमें से एक तो सूरसागर की हस्तलिखित प्रति थी और दूसरी कबीरदासजी के ग्रंथों की दो प्रतियाँ थीं। कबीरदासजी के ग्रंथों की इन दो प्रतियों में से एक तो संवत् १५६१ की लिखी है और दूसरी संवत् १८८१ की। दोनों प्रतियाँ सुंदर अक्षरों में लिखी हैं और पूर्णतया सुरक्षित हैं। इन दोनों प्रतियों के देखने पर यह प्रकट हुआ कि इस समय कबीरदास जी के नाम से जितने ग्रंथ प्रसिद्ध हैं, उनका कदाचित् दशमांश भी इन दोनों प्रतियों में नहीं है। यद्यपि इन दोनों प्रतियों के लिपिकाल में ३२० वर्ष का अंतर है पर फिर भी दोनों में पाठ-भेद बहुत ही कम है। संवत् १८८१ की प्रति में संवत् १६६१ वाली प्रति की अपेक्षा केवल १३१ दोहे और ५ पद अधिक हैं। उस समय यह निश्चय किया गया कि इन दोनों हस्त-लिखित प्रतियों के आधार पर कबीरदासजी के ग्रंथों का एक संग्रह प्रकाशित किया जाय। यह कार्य पहले पंडित अयोध्यासिंहजी उपाध्याय को सौंपा गया और उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। पर पोछे से समया-भाव के कारण वे यह कार्य न कर सके। तब यह मुझे सौंपा गया। मैंने यथासमय यह कार्य आरंभ कर दिया। मेरे दो विद्यार्थियों ने इस कार्य में मेरी सहायता करने की तत्परता भी प्रकट की, पर इस तत्परता का अवसान दो ही तीन दिन में हो गया। धीरे धीरे