पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/८९

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सुमिरण कौ अंग

कबीर कहै मैं कथि गया,कथि गया ब्रह्म महेस ।
राम नाँव ततसार है,सब काहू उपदेस ॥ २ ॥
तत तिलक तिहूँ लोक मैं,राम नाँव निज सार ।
जन कबीर मस्तक दिया,सोभा अधिक अपार ॥ ३ ॥
भगति भजन हरि नाँव है,दूजा दुक्ख अपार ।
मनसा बाचा क्रमनां,कबीर सुमिरण सार ।। ४ ॥
कबीर सुमिरण सार है,और सकल जंजाल ।
आदि अंति सब सोधिया,दूजा देखौं काल ॥ ५ ॥
च्यंता तौ हरि नाँव की,और न चिंता दास ।
जे कुछ चितवैं राम बिन,सोइ काल की पास ॥ ६ ॥
पंच संगी पिव पिव करै,छठा जु सुमिरे मंन ।
आई सृति कबीर की,पाया राम रतंन ॥ ७ ॥
मेरा मन सुमिरै राम कू,मेरा मन रामहिं आहि ।
अब मन रामहि है रह्या,सीस नवावौं काहि ॥ ८ ॥
तूं तूं करता तूं भया,मुझ मैं रही न हूँ।
बारी फेरी बलि गई,जित देखौं तित तूं ॥ ९ ॥
कबीर निरभै राम जपि,जब लग दीवै बाति ।
तेल घट्या बाती बुझो,(तब) सोवैगा दिन राति ।। १० ।।
कबीर सूता क्या करे,जागि न जपै मुरारि ।
एक दिनां भी सोवा,लंबे पाँव पसारि ॥ ११ ॥
कबीर सूता क्या करै,काहे न देखै जागि ।
जाका संग ते बोछुड़वा, ताही के सँग लागि ॥ १२ ॥
कबीर सूता क्या करे, उठि न रोवै दुक्ख ।
जाका बासा गोर मैं,से क्यूं सोवै सुक्ख ॥ १३ ॥


( ३ ) ख. में नहीं है।