पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/६४

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इस ग्रंथावली में भी ऐसी गर्वोक्तियों की कोई कमी नहीं है- (क) हम न मरै मरिहै संसारा । (ख) एक न भूला दोइ न भूला, भूला सब संसारा। एक न भूला दास कवीरा, जाकै राम अधारा ॥ (ग) देखो कर्म कबीर का, कछू पूरब जनम का लेखा । जाका महल न मुनि लहै, सो दोसत किया अलेखा ।। (घ) कबीर जुलाहा पारपू, अनभै उतरथा पार । परंतु यह गर्व लोगों को नीचा देखनेवाला गर्व नहीं है-साक्षा- कार-जन्य गर्व है, स्वामी के आधार का गर्व है, जो सबमें पारमा- त्मिकता का अनुभव करके प्राणिमात्र को समता की दृष्टि से देखता है। अपनी पारमात्मिकता की अनुभूति की गरमी में उनका ऐसा कहना स्वाभाविक ही है जो उनके मुँह से अनुचित भी नहीं लगता। जो हो, कम से कम छोटे मुँह बड़ो बात की कहावत उनके विषय में धरितार्थ नहीं हो सकती। वे पहुँचे हुए महात्मा थे। उन्होंने स्वयं ही अपनी गिनती गोपीचंद, भर्तृहरि और गोरखनाथ के साथ की है- गोरष भरथरि गोपीचंदा। ता मन सी मिलि करें अनंदा ॥ अकल निरंजन सकल सरीरा । ता मन सौं मिलि रहा कबीरा ॥ परंतु इतने ऊँचे पद पर वे विनय के द्वारा ही पहुँच सके हैं। इसी से उनका गर्व उच्चतम मनुष्यता का प्रेममय गर्व है जिसकी प्रात्मा विनय है। सच्चे भक्त की भाँति उन्होने परमात्मा के महत्त्व और अपनी हीनता का अनुभव किया है- • तुम्ह समानि दाता नहीं, हम से नहीं पापी । स्वामी के सामने वे विनय के अवतार हैं- कबीर कृता राम का, मुतिया मेरा नाउँ । गलै राम की जेवड़ी, जित बैचे सित जाउँ ।