कबीर ने माया को मिथ्या या भ्रम मात्र माना है,जिसका कारण अज्ञान है। यह शंकर का अद्वैत है जिसमें आत्मा और परमात्मा परमार्थतः एक माने जाते हैं,परंतु बीच में अज्ञान के आ पड़ने से आत्मा अपनी पारमार्थिकता को भूल जाती है। ज्ञान प्राप्त हो जाने पर अज्ञान-पात भेद मिट जाता है और आत्मा को अपनी परमामिकतम की अनुभूति हो जाती है। यही बात हम कबीर में भी देख चुके हैं। परंतु उन पर समय और परिस्थितियों का अलक्ष्य प्रभाव भी पड़ा था जिसके कारण वे असावधानी में ऐसी बातें भी कह हैं जो उनके अद्वैत सिद्धान से मेल नहीं खानी। उन्होंने स्थान स्थान पर अवतारवाद का विरोध हो किया है, परंतु उनके नीचे लिखे पद से अबतारवाद का समर्थन भी होता है-
बांधि मारि भावै देह जारि,जेहूँ रांम छाडौं तो मेरे गुरुहि गारि ।
तत्र काढ़ि सड़ग कोष्यो रिसाइ,तोहि राखनहारौ मोहि वताइ॥
खंभा मैं प्रगट्यो मिलारि,हरनाकस मारयो नख बिदारि ।
महा पुरुष देवाधिदेव,नरस्यंघ प्रमट किये भगति भेव ।
कहै कबीर कोई लहै प पार,प्रहिलाद उबारयो अनेक धार ।
बात यह है कि उपासना के लिये उपास्य में कुछ गुणों का
आरोप आवश्यक होता है, बिना गुणों के प्रेम का आलंबन हो हो
नहीं सकता। उपनिषदों तक में निराकार निर्गुण ब्रह्म में उपासना
के लिये गुणों का आरोप किया गया है। एकेश्वरवादी धर्मों में
जहाँ कट्टरपन ने परमात्मा में गुणों का आरोप नहीं करने दिया,
वहाँ परमात्मा और मनुष्य के बीच में एक और मनुष्य का सहारा
लिया गया है। ईसाइयों को ईसा पौर मुसलमानों को मुहम्मद का
अवलंबन प्रहण करना पड़ा। भक्ति की झांक में कबीर भी नय
सांसारिक प्रेममूलक संबंधों के द्वारा परमात्मा की भावना करने लगे,तब परमात्मा में स्वयं हो गुणों का प्रारोप हो गया। माता पिता