पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/५५

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परंतु उस निराकार की इस विश्व-विस्तृत सृष्टि में उस मूल तत्त्व की सत्ता का जो आभास मिल जाता है, उसके कारण निर्गुण भक्त संसार के समस्त प्राणियों को अपने प्रेम और दया का पात्र बना लेता है, जब कि सगुण भक्त की बहुत कुछ भावुकता ठाकुरजी की मूर्ति के बनाव श्रृंगार और उनके भोग राम के आडंबर ही में व्यय हो जाती है। इसी प्रेम ने कबीर को ऊँच नीच का भेद-भाव दूर कर सब की एकता प्रतिपादित करने की प्रेरणा की थी-

एक बूंद एक मल मूतर एक चाम एक गृदा ।
एक जोति | सम उपजा कौन बामन कौन सूदा ।।
जाति-पाँति का ही नहीं इसी से धर्माधर्म का भेद भी उन्हें
अवास्तविक जॅचा-

___ कहै कबीर एक राम जपहु रे,हिंदू तुरक न कोई ।
कबीर का प्रेम मनुष्यों तक ही परिमित नहीं है, परमात्मा की
सृष्टि के सभी जीव जंतु उसकी सीमा के अंदर आ जाते हैं; क्यांकि


'सबै जीव साई के प्यारेहैं। अँगरेजी के कवि कॉलरिज ने भी यही भाव इस प्रकार प्रकट किया है-
He prayeth best who loveth best,
All things both great and small;
For the dear God who loveth us,
He made and loveth all.

कबीर का यह प्रेम तत्त्व, जिसका ऊपर निरूपण किया गया है,सूफियों के संसर्ग का फल है परंतु उसमें भी उन्होंने भारतीयता का पुट दे दिया है। सूफी परमात्मा को प्रियतमा के रूप में देखते हैं। उनके "मजनू़ं को अल्लाह भी लैला नज़र आता है" परंतु कबीरदास ने परमात्मा को प्रियतम के रूप में देखा है जो भारतीय माधुर्य भाव के सर्वथा मेल में है। फारस में विरह-व्यथा पुरुषों के