पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/४८

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विश्व-विस्तृत सृष्टि और ब्रह्म का संबंध दिखाने के लिये ब्रह्मवादी दो उदाहरण दिया करते हैं। जिस प्रकार एक छोटे से बीज के अंदर वट का बृहदाकार वृक्ष अंतर्हित रहता है उसी प्रकार यह सृष्टि भी ब्रह्म में अंतर्हित रहती है; और जिस प्रकार दूध में घी व्याप्त रहता है, उसी प्रकार ब्रह्म भी इस अंडकटाह में सर्वत्र व्याप्त है। कबीर ने इसे इस तरह कहा है—

खालिक खलक, खलक में खालिक सब जग रह्यो समाई।

सर्वव्यापी ब्रह्म जब अपनी लीला का विस्तार करता है तब इस नामरूपात्मक जगत् की सृष्टि होती है जिसे वह इच्छा होने पर अपने ही में समेट लेता है—

इन मैं आप आप सबहिन मैं आप आप सूँ खेलै।
नाना भांति घड़े सब भांड़े रूप धरे धरि मेलै॥

वेदांत में नामरूपात्मक जगत् से संबंध और कई प्रकार से प्रकट किया जाता है जिनमें से एक प्रतिबिंबवाद है जिसका कबीर ने भी सहारा लिया है। प्रतिबिंबवाद के अनुसार ब्रह्म बिंब है और नामरूपात्मक दृश्य जगत् उसका प्रतिबिंब है। कबीर कहते हैं—

खंडित मूल बिनास, कहौ किम विगतह कीजै।
ज्यूँ जल मैं प्रतिब्यंब, त्यूँ सकल रामहिं जाणीजै॥

'जो पिंड में है वही ब्रह्मांड में है' कहकर भी ब्रह्म का निरूपण किया जाता है परंतु केवल वाक्य के आश्रय से बननेवाले ज्ञानियों को इससे भ्रम हो सकता है कि पिंड और ब्रह्मांड ब्रह्म की अवस्थिति के लिये आवश्यक हैं। ऐसे लोगों के लिये कबीर कहते हैं—

प्यंड ब्रह्मंड कथै सब कोई, वाकै आदि अरु अंत न होई।
प्यंड ब्रह्मंड छाड़ि जे कथिए, कहै कबीर हरि सोई॥

वेदांत के 'कनक-कुंडल-न्याय' के अनुसार जिस प्रकार सोने से कुंडल बनता है और फिर उस कुंडल के टूट टाट अथवा पिघल जाने