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कबीर-ग्रंथावली

हरि की कथा अनाहद बानी । हंस है हीरा लंइ पछानी ।।
कहि कबोर हीरा अस देख्यो जग महि रहा समाई ।
गुपता हीरा प्रगट भयो जब गुरु गम दिया दिखाई ।। २२१
हृदय कपट मुख ज्ञानी । झूठ कहा बिलोवसि पानी ।।
काया मजिसि कौन गुना । जी घट भीतर है मलनां ।।
लौकी अठ सठि तीरथ न्हाई । कोरापन तर न जाई ।।
कहि कबीर बोचारी । भव सागर तारि मुरारी ।। २२२ ।