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पांशिष्ट

हरि बिन कौन सहाई मन का।
मात पिता भाई सुत बनिता हितु लागो सब फन का ।।
आगै कौ किछु तुलहा बाँधहु क्या भरोसा धन का ।
कहा बिमामा इस भांडे का इंत नकु लगैठन का ।।
सयल धर्म पुन्न फल पावहु धूरि बांछहु सब जन का।
कहै कबीर सुनहु रे संतहु इहु मन उडन पखेरू वन का।। २१८ ।।
हरि जै? सुनहि न हरि गुन गावहि ! वातनही असमान गिरावहि ।।
ऐसे रोगन रयो क्या कहिय।जो प्रभू कीये भगति ते बाहज तिनते
सदा डराने रहिये ।।
अापन देहि गुरू भरि पानी । तिहि निदहि जिह गंगा पानी ।।
वैठन उठत कुटिलता चालहि : आप गये औरनहू घालहि ।
छाडि झुंच आन न जांनहि । ब्रह्माहू का कह्या न मानाहे ।।
आप गवे औरनह खोवाहि । आगि लगाइ मंदिर में सावहि ।। .
औरन हँसन आपहहिं काने : तिनकौ देखि कबार लजाने ।। २१६ ।।

हिंदू तुरक कहाँ ते आये किन एह माह चलाई ।
दिन महि सोच विचार करादे भिस्त दोजक किन पाई ।।
काजी तै कौन रूतंब बवानो।
पढ़त गुनत ऐसे सब सारे किनहू खबर न जानी ::
सकाते सनेह करि सुन्नति करियै मै न बदौगा भाई ।
जौ रे खुदाई मोहि तुरक करैगा आपनहो कटि जाई ।
सुन्नति किये तुरक जे हाइगा औरत का क्या करियै ।
अर्द्ध सरीरी नारि न छोड़े ताते हिंदु ही रहिये ।।
छाडि कतंब रांम भजु बौरे जुलम करत है भारी ।
कबीर पकरी टेक रांम की तुरक रहे पचि हारी ॥ २२० ।।
हीरै हीरा बेधि पवन मन सहजे रह्या समाई।
सकल जोति इन हीरै बेधी सति गुरु बचनी मैं