पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/४११

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परिशिष्ट

इहि सपंनी ताकी कीती होई । बल अबल क्या इसते होई ॥
एह बसती ता बसत सरीरा ।गुरु प्रसादि सहजि तरे कवोरा ।।२०४॥सरीर सरोवर भीतरै पाछै कमल अनूप। ।
परम ज्योति पुरुषोत्तमो जाकै रेख न रूप ।। ।
रे मन हरि भजु भ्रम तजहु जग जीवन रांम ।।
आवत कछु न दीसई नह दीसै जान ।।
जहाँ उपजै बिनसै तही जैसे पुरवनि पात ।।
मिथ्या करि माया तजा सुख सहज बोचारि ।
कहि कबीर सेवा करहु मन मंझि मुरारि । २०५॥
सासु की डुखी ससुर की प्यारी जेठ के नाम डरौं रे ।
सखी सहेली ननद गहेली देवर कै बिरहि जरौं रे ।।
मरी मति बौरी मैं रांम बिसारयो किन बिधि रहनि रहौ रे।सेजै रमत नयन नहीं पेखौ इहु दुख कासौ कहौ रे॥ .बाप साबका करै लराई मया सद मतवारी।
बड़े भाई के जब संग होती तब हौ नाह पियारी ।।
कहत कबीर पंच को झगरा झगरत जनम गवाया।
झूठी माया सब जग बाँध्या में राम रमत सुख पाया ।।२०६॥
सिव की पुरी बसै बृधि मारु । तह तुम मिलि के करहु बिचारु ।।
ईत ऊत की सोझो परे । कौन कर्म मेरा करि करि मरै ॥
निज पद ऊपर लागो ध्यान । राजा राम नाम मोरा ब्रह्म ज्ञान ।।
मूल दुारै बंध्या बंधु । रवि ऊपर गहि राख्या चंदु ।
पच्छम द्वारै सूरज तपै । मेर डंड सिर ऊपर वसै॥
पंचम द्वारे की सिल ओड़ । तिह सिल ऊपर खिड़की और ॥
खिड़की ऊपर दसवा द्वार ।कहि कबीर ताका अंतु न पार ।।२०७।।

सुख माँगत दुख आगै आवै । सो सुख हमहु न माँग्या भावै ॥
बिषया अजहु सुरति सुख आसा। कैसे होइहै राजा राम निवासा ।।