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कबीर-ग्रंथावली

मो गरीब की को गुनरावै । मजलसि दूरि महल को पावै ।।
तेतसि करोडी हैं खेल खाना । चौरासी लख फिरै दिवाना ॥
बाबा आदम कौ कछु न दरि दिखाई !उनभी भिस्त घनेरी पाई ।।
दिल खल हलु जाकै जर दरुबानी । छोडि कतेब करै सैतानी ॥
दुनिया दोस रोस है लोई । अपना कीया पावै सोई ।।
तुम दाते हम सदा भिखारी । देउ जबाब होइ बजगारी ।।
दास कबीर तेरी पनह समाना। मिस्त नजीक राखु रहमाना ।।२००।।

सनक सनंद अंत नहीं पाया । वेद पढ़े पढ़ि ब्रह्मे जनम गवाया ।।
हरि का विलोबना विलोवहु मेरे भाई।सहज बिलोवहु जैसे तत्त्व न जाई।।
तनु करि मटकी मन माहिं बिलोई । इसु मटकी महिं सबद संजोई ।।
हरि का बीलोना मन का बोचारा । गुरु प्रसादि पावै अमृत धारा ।।
कहु कबीर न दर करे जे मीरा । रांम नांम लगि उतरे तीरा ॥२०१।।

सनक सनंद महेस समाना । सेषनाग तेरो मर्म न जाना ॥
संत संगति राम रिदै बसाई ।।
हनूमान सरि गरुड़ समाना । सुरपति नरपति नहि गुन जाना ।।
चारि बंद अरु सिमृति पुराना । कमलापति कमला नहि जाना ।।
कह कबीर सो भरमै नाहीं । पग लगि राम रहै सरनाही ॥२०२।।

सब कोई चलन कहत है ऊहा । ना जानौं बैकुंठ है कहां ।।
आप आपका भरम न जानां । बातन हो बैकुंठ बखानां ।।
जब लग मन वैकुंठ की प्रास । तब लग नाही चरन निवास ।।
खाई कोट न परल पगारा । ना जानौ बैकुंठ दुआरा ॥
कहि कबीर अब कहियै काहि । साध संगति बैकुंठ पाहि ।। २०३ ।।
सर्पनी ते ऊपर नही बलिया । जिन ब्रह्मा विष्णु महादेव छलिया ।।
मारु मारु सर्पनी निर्मल जल पैठी।जिन त्रिभुवन डसिले गुरुप्रसादि'डीठी
सर्पनी सर्पनी क्या कहहु भाई । जिन साचु पलान्या तिन सर्पनी खाई।
सर्पनी ते प्रान छूछ नही अवरा । सर्पनी जीती कहा करै जमरा ॥