कबीर के साथ प्रायः लोई का भी नाम लिया जाता है। कुछ
लोग कहते हैं कि यह कबीर की शिष्या थो और प्राजन्म उनके साथ
रही। अन्य इसे उनकी परिणीता खो बताते
गार्हस्थ्य जीवन
' हैं और कहते हैं कि इसके गर्भ से कबीर '
को कमाल नाम का पुत्र और कमालो नाम की पुत्री हुई। कबीर
ने लोई को संबोधन करके कई पद कहे हैं। एक पद में वे कहते हैं-
रे यामें क्या मेरा क्या तेरा, लाज न मरहिं कहत घर मेरा ।
कहत कबीर सुनहु रे लोई, हम तुम बिनसि रहेगा सोई ।।
इसमें लोई और कबीर का एक घर होना कहा गया है जिससे
लोई का कबीर की स्त्री होना ही अधिक संभव जान पड़ता है।
कबीर ने कामिनी की बहुत निंदा की है। संभवतः इसी लिये लोई
के संबंध में उसकी पत्नी के स्थान में शिष्या होने की कल्पना की गई है।
नारि नसावै तीनि सुख, जा नर पासै होइ।
भगति मुकति निज ज्ञान मैं, पैसि न सकई कोइ ।
एक कनक अरु कामिनी, विष फल कीए उ पाइ।
देखे ही शै विप चढ़े, खाए हूँ मरि जाइ ।
परंतु कामिनी कांचन की निंदा के उनके वाक्य वैराग्यावस्था के
समझने चाहिए। यह अधिक संगत जान पड़ता है कि लोई कबीर
की पन्नो थी जो कबीर के विरक्त होकर नवीन पंथ चलाने पर
उनकी अनुगामिनी हो गई। कहते हैं कि लोई एक बनखंडी वैरागी
की परिपालिता कन्या थो। यह लोई उस वैरागी को स्नान करते
समय लोई में लपेटी और टोकरी में रखी हुई गंगाजी में बहती हुई
मिली थी। लोई में लपेटी हुई मिलने के कारण ही उसका नाम
लोई पड़ा था। बनखंडी बैरागी की मृत्यु के बाद एक दिन कबीर
उसकी कुटिया में गए। वहाँ अन्य संतों के साथ उन्हें भी दुध पीने
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