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कबीर-ग्रंथावली

 
राजा स्रिमामति नहीं जानी तोरी।तेरे संतन की हौं चेरी॥
हसतो जाइ सु रोवत आवै रोवत जाइ सु हसै ।
बसतो होइ सो ऊजरू ऊजरू होइ सु वसै ॥
जल ते थल करि थल ते कूआ कूप ते मेरु करावै।
धरती ते आकास चढावै चढे अकास गिरावै ॥
भेखारी ते राज करावै राजा ते भेखारी।
खल मूरख ते पंडित करिबो पंडित ते मुगधारी ॥
नारी ते जो पुरुख करावै पुरखन ते जो नारी ।
कहु कबीर साधू का प्रीतम सुमूरति बलिहारी ॥१७८।।

राम जपौ जिय ऐसे ऐसे । ध्रुव प्रह्लाद जप्यो हरि जैसे ।।
दीन दयाल भरोसे तरे । सब परवार चढ़ाया बेड़े ।।
जाति सुभावै ताहु कम मनावै । इस बेड़े को पार लँघावै ।।
गुरु प्रसादि ऐसी बुद्धि ममानी । चूकि गई फिरि पावन जानी ।।
कहु कबीर भजु सारिंगपानी ।उरवार पार सब एकां दानी ।।१७९।।

रांम सिमरि रांम सिमरि राम सिमरि भाई ।
रांम नांम सिमरन विन बूढ़ते अधिकाई ।।
वनिता सुत दह ग्रेह संपति सुखदाई ।
इनमें कछु नाहि तेरो काल अवधि आई ।।
अजामल गज गनिका पतित कर्म कीने ।
तेऊ उतरि पार परे रांम नांम लीने ।।
सूकर कूकर जोनि भ्रमतंऊ लाज न आई ।
रांम नांम छाडि अमृत काहे विष खाई ॥
नजि भर्म कर्म बिधि निपंध रांम नांम लेही ।
गुरु प्रसादि जन कबीर राम करि सनही ।। १८० ॥

री कलवारि गवारि मूढ़ मति उलदो पश्न फिरावौ।
मन मतवार मेर सर भाठी अमृत धार चुवावौ ।।