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परिशिष्ट

जियरा हरि के गुन गाउ ।।
गर्भ जोनि महि उर्ध्व तपु करता । तौ जठर अग्नि महि रहता ॥
लख चौरासीह जौनि भ्रमि आयो । अब के छुटके ठौर न ठायो॥
कहु कबीर भजु सारिंगपानी । आवत दीसै जात न जानी ॥१७३॥

रहु रहु री बहुरिया घुघट जिनि काढै।अंत की बार लहैगो न आढ़ै।।
घूंघट काढ़ि गई तेरी आगै । उनकी गैल तोहि जिनि लागै ।।
घुंघटं काढ़े की इहै बड़ाई । दिन दस पांच वह भले आई ।।
घुंघट तेरो तौपरि साचै । हरि गुन गाइ कूदहि अरु नाचै ।।
कहत कबीर बहू तब जीतै। हरि गुन गावत जनम व्यतीतै ॥१७४।।

राखि लेहु हमते बिगरी ।
सील धरम जप भगति न कीनी हौ अभिमान टेढ़ पगरी ।।
अमर जानि संची इह काया इह मिथ्या काची गगरी ।
जिनहि निवाजि माजि हम कीये ति हि बिसारि औ लगरी ।।.
संधि कोहि साध नही कहियौ मरनि परे तुमरी पगरी ।
कहि कबीर इह विनती सुनियहु मत घालहु जम की खवरी ।१७५।।

राजम कौन तुमारै आवै ।
ऐसो भाव बिदुर को देख्यो औहु गरीब मोहि भावै ॥
हस्तो देखि भर्मते भूला श्री भगवान न जान्या ।
तुमरो दूधे बिदुर को पानी अमृत करि मैं मान्या ॥
खीर समान सागु मैं पाया गुन गावत रैनि बिहानी ।
कबीर को ठाकुर अनद बिनोदी जाति न काहू की मानी ।।१७६॥

राजा रांम तू ऐसा निर्भव तरन तारन रांम राया ।।
जब हम होते तब तुम नाही अब तुम हहु हम नाही।
अब हम तुम एक भये हहि एकै देखति मन पतियाही ॥
जब बुधि होती तब बल कैसा अब बुधि बल न खटाई।
कहि कबीर बुधि हरि लई मेरी बुधि बदली सिधि पाई ।। १७७ ॥