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परिशिष्ट

शश्शा सो नीक। करि सोधहु । घट पर चाकी बात निरोधहु ।।
घट परचै जौ उपजै भाउ । पूरि रह्या तह त्रिभुवन राउ।।
षष्पा खोजि परै जौ कोई । जो खोजै सो बहुरि न होई ।।
खोजि बूझि जौ करे विचारा । तौ भव जल तरत न लावै बारा ।
सस्सा सो सह सेज सवारै । सोई सही संदेह निवारै ।
अल्प सुख छाडि परम सुख पावा,तब इह त्रिय आहुकंत कहावा।।
हाहा होत होइ नहीं जाना । जबही होइ तबहि मन माना ।
है तौ सही लखै जो कोई : तब ओही उह एहु न होई ॥
लिउं लिउँ करन फिरै मब लोग । ता कारण ब्यापै बहु सोग ।।
लक्ष्मीबर स्यो जौ लिव लागै । सोग मिटै सब ही सुख पावै ।।
खक्खा खिरत खपत गये केते । खिरत खपत अजहँ नहि चेते ॥
अब जग जानि जै। मना रहै । तह का बिछुरा तह थिरु लहै ।।
बावन अक्खर जोरे आन । सक्या न अक्खरु एक पछानि ।।
सत का सबद कवारा कहै । पंडित हाइ सो अनभै रहै ।।
पंडित लोगह कौ ब्यवहार । ज्ञानवन्त कौ तत्त्व बीचार ।।
जाकै जीय जैसी बुधि हाई : कहि कबीर जानैगा सोई ॥१५२ ।।

बिंदु ते जिन पिंड किया अगनि कुंड रहाइया ।
दम मास माता उदरि राख्या बहुरि लागी माइया ।।
आनी काहे कौ लोभि लागै रतन जनम खोया।
पूरब जनम करम भूमि बीजु नाहीं बोया ।
बारिक ते बिरध भया होना सा होया।
जा जम आइ झोट पकरै तबहि काहे रोया ।।
जीवन की आसा करै जम निहारै सासा ।
बाजीगरी संसार कबीरा चेति ढालि पासा ॥ १५३ ।।

बुत पूजि पूजि हिंदू मुये तुरक मुये सिर नाई ।
ओइ ले जारं ओइ ले गाड़े तेरी गति दुहूँ न पाई ॥
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