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परिशिष्ट

छच्छा इहै छत्रपति पासा। छकि किन रहहु छाडि किन आसा॥
रे मन मैं तो छिन छिन समझावा । ताहि छाडि कत अाप बधाव।।
जजा जौ तन जीवत जरावै । जोवन जारि जुगति सो पावै ।।
अस जरि परजरि जरि जब रहै । तब जाइ ज्योति उजारौ लहै ।।
झमझा उरभि सुरझि नहि जाना । रह्यो झझकि नाही परवाना ।।
कत झकि झकि औरन समझावा । झगर किये झगरौ ही पावा।।
गंगा निकट जु घट रह्यो दूरि कहा तजि जाइ ।
जा कारण जग दूंढियो नेरौ पाया ताहि ॥
टट्टा विकट घाट घट माही । खोलि कपाट महल किन जाही ।।
देखि अटल टलि कतहि न जावा । रहै लपटि घट परचौ पावा ॥
ठट्टा इहै दुरि ठग नीरा । नीठि नीठि मन कीया धीरा ॥
जिन ठग ठग्या सकल जग खावा:सो ठग ठग्या ठौर मन अावा।।
डड्डा डर उपजै डर जाई ! ता डर महि डर रह्या समाई।
नौ डर डरै तो फिरि डर लागै ! निडर हुआ डर उर हाइ भागै ॥
ढढ्ढा ढिग ढूंढहि कत आना । ढूँढत ही ढहि गये पराना ॥
चढि सुमेर ढूंढि जब आरा । जिह गढ़ गढ्यो सुगढ़ महि पावा ।।
णाणा रणि रूतौ नर नेही करै ।नानि बैना फुनि संचरै।।
धन्य जनम ताही को गणै।मारे एकहि तजि जाइ घणै ।।
तत्ता अतर तरयौ नइ जाई।तन त्रिभुवय में रह्यो समाई।।
जौ त्रिभुवण तन माहि समावा।तौ तत हि तत मिल्या सचुपावा।।
यथा अथाह थाह नहीं पावा।ओहु अथाह इहु घिर रहावा ।।
थोड़े थल थानक आरंभै । बिनुही थाहर मन्दिर थंभै ।।
दद्दा देखि जु बिनसन हारा।जस अदेखि तस राखि विचारा ।।
दमवै द्वार कुंजी जब दीजै ।तौ दयाल कौ दर्सन कीजै ।।
धद्धा अर्द्धहि उर्द्ध निबेरा । अर्द्धहि उर्द्धह मंझि बसेरा।
अर्द्धह छाडि उर्द्ध जौ आवा । तं अर्द्धहि उर्द्ध मिल्या सुख पावा ॥