पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३९२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३०८
कबीर-ग्रंथावली

पवन पति उनमनि रहनु खरा । नहीं मिसु न जनमु नरा ।।
उलटी ले सकति संहार । फैसीले गगन मझार ।।
बेधिय ले चक्र भुअंगा। भेटिय ले राइन संगा ॥
चूकिय ले मोह मइ आसा । ससि कीनो सूर गिरासा ।।
जब कुंभ कुभरि पुरि जीना । तब बाजे अनहद बीना ।।
बकतै बकि सबद सुनाया । सुनतै सुनि माल बसाया ।।
करि करता उतरसि पार। कहै कबीरा सार॥ १४५ ॥

वटुआ एक बहत्तरि आधारी एको जिसहि दुबारा ।
नवै खंड की प्रथमी मांगै सो जोगी जगसारा ॥
ऐसा जोगी नव निधि पावै । तल का ब्रह्म ले गगन चरावै ।।
खिथा ज्ञान ध्यान करि सूई सबद ताग मथि घालै ।
पंच तत्व की करि मिरगाणी गुरु कै मारण चालै ।।
दया फाहुरी काया करि धूई दृष्टि की अगनि जलावै ।
तिसका भाव लए रिद अंतर चहु जुग ताडो लावै ।।
सभ जागत्तण रांम नांम है जिसका पिंड पराना।
कहु कबीर जं किरपा धारै देइ सचा नीसाना ।। १४६ ।।

बनहि वसे क्यों पाइयै जौ लौ मनहु न तजै विकार ।
जिह घर वन सम सरि किया ते पूरे संसार ।।
सार सुख पाइयं रांमा । रंगि बहु आतमै रामा ।।
जटा भस्म लै लंपन किया कहा गुफा महि वास ।
मन जीते जग जीतिया त बिपिया ते हाइ उदास ।।
अंजन देइ सब काई टुकु चाहन माहि विडानु ।
ग्यान अंजन जिह पाइया ते लोइन परवानु ।।
कहि कबीर अब जानिया गुर ग्यान दिया समझाइ ।
अंतर गति हरि भेटिया अब मेरा मन कतहु न जाइ ।। १४७
बहु प्रपंच फरि परधन ल्यावै । सुत दारा पहि आनि लुटावै ।।