पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३८९

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परिशिष्ट

घोरै चरि भैस चरावन जाई । बाहर बैल गोनि घर आई ॥.
कहत कबीर जो इस पद बूझै।रांम रमत तिसु सब किछू सूझै१३५॥
पहिलो कुरूप कुजाति कुलक्खनी साहुरै पइयै बुरी।
अब को सरूप सुजाति सुलक्खनी सहजे उदरधरी ।।
भली सरी मुई मेरी पहली बरी ।
जुग जुग जीवौ मेरी अब की धरी ।।
'कहु कबीर जब लहुरी आई बड़ी का सुहाग टरयो।
लहुरी संग भई अब मेरे जेठा और धरसों ।। १३६ ।।

पाती तौरै मालिनी पाती पाती जीउ ।
जिसु पाहन का पाती तारै सो पाहनु निरजीउ ।।
मूली मालिनी है एए । सति गुरू जागता है देउ ।। ।
ब्रह्म पानी विस्नु डारी फूल संकर देव ।
तीन देव प्रतख्य तारहि करहि किसकी सेव ।। -
पापान गढि कै मूरति कीनी देके छाती पार ।
जे एइ मूरति साची है तो गड़ण हारे खाउ ।।
भातु पक्षिति और लापसो करके राका सारु ।
भोगनु हार भोगिया इसु मूरति के मुखलार ।।
मालिन भूली जग भुलाना हम भुलाने नाहिं ।
कहु कबीर हम गम राखे कृपा करि हरि राइ ।। १३७ ।।

पानी मैला माटी गोरी । इस माटी की पुतरो जोरी ।।
मैं नाही कछु आहि न मारा । तन धन सब रस गाविंद तोरा ।।
इस सादी महि पवन समाया। झूठा परपंच जोरि चलाया ।
किनहू लाख पाँच की जोरी । अंत कि बाट गगरिया फीरी ॥
कहि कबीर इक नीवौ सारी ।खिन महि बिनसि आइ अहंकारी।१३८
पाप पुन्य दाइ बैल बिसाहे पवन पुंजी परगास्यो। ..
तृष्णा शणि भरी घट भीतर इन विधि टांड बिसालो ।।