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कबीर-ग्रंथावली

पांचे पंच तत्त बिस्तार । कनिक कामिनी जुग व्योहार ।।
प्रेम सुधा रस पीवै कोइ । जरा मरण दुख फेरि न होइ ।।
छटि षट चक्र चहूँ दिसि धाइ ! बिनु परचै नहीं थिरा रहाइ ।।
दुबिधा मेटि खिमा गहि रहहु । कर्म धर्म की सूल न सहहु ।।
सातै सति करि बाचा जाणि । आतम रांम लेहु परवाणि ।।
छूटै संसा मिटि जाहि दुक्ख । सुन्य सरोवरि पावर सुक्ख ।।
अष्टमी अष्ट धातु की काया । तामहि अकुल महा निधि राया ॥
गुरु गम ज्ञान बतावै भेद । उलटा रहै अभंग अछंद ।।
नौमी नवै द्वार कौ साधि । वहती मनसा राखहु बांधि ।
लोभ मोह सब बीसरी जाहु । जुग जुग जीवहु अमर फल खाहु ।।
दसमी दह दिसि होइ अनंद । छूटै भर्म मिलै गोविंद ।। .
ज्योति स्वरूप तत्त अनूप । अमल न मा न छाह नहिं धूप ।।
एकादसी एक दिसि धावै । तौ जोनी संकट बहरि न आवै ।।
सीतल निर्मल भया सरीरा । दूरि बतावत पाया नीरा ।
बारसि वारहौ गवै सूर । अहि निसि बाजै अनहद नूर ।।
दख्या तिहूँ लोक का पीउ । अचरज भया जीव तं सीउ ।।
तेरसि तेरह अगम वखाणि । अर्द्ध उर्द्ध बिच मम पहिचाणि ।।
नीच ऊँच नही मान प्रमान । व्यापक राम मकल सामान ।
चौदसि चौदह लोक मझारि | रोम रोम महि बमहि मुरारि ॥
संत संताप का धरहु धियान । कथनी कथियै ब्रह्म गियान ।
पून्यो पूरा चन्द अकाल । पसरहि कला सहज परगास ।।
आदि अंत मध्य होइ रह्या बोर। सुखसागर महि रमहि कबीर १३४
पहिला पूत पिछैरी माई । गुरु लागो चेले की पाई ।।
एक अचंभौ सुनहु तुम भाई। देखत सिंह चरावत गाई ।।
जल की मछली तरवर व्याई । देखत कुतरा लै गई बिलाई ।।
तलरे वैसा ऊपर सूला । तिसकै पेड़ लगे फल फूला ॥