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परिशिष्ट

मन के अन्धे आपि न बूझहु का कहि बुझावहु भाई। .
माया कारन विद्या बेचहु जनम अविर्धा जाई ।।
नारद बचन बिपास कहत है सुक को पूछहु जाई ।
कहि कबीर रांमहि रमि छूटहु नाहि त बूड़े भाई ॥ १३२* ।।

पंथ निहारै कामनी लोचन भरी लेइ उसासा ।
उर न भीजै पग ना खिसै हरि दर्सन की आसा ।।
उंडहु न कागा कारे । वेग मिलीजै अपने रांम प्यारे ।।
कहि कबीर जीवन पद कारन हरि की भक्ति करीजै ।
एक अधार नाम नारायण रसना रांम रबीजै ।। १३३ ॥
पन्द्रह तिथि सात वार । कहि कबीर उर वार न पार ।।
साधक सिद्ध लखै जौ भेउ । आपे करता आपे देउ ।।
अम्मावम महि अास निवारौ । अन्तरयामी राम ममारहु ।।
जीवत पावहु मोख दुवारा । अनभौ सबद तत्त्व निज सार ।।
चरन कमल गाविद रंग लागा।
सन्त प्रसाद भये मन निर्मल हरि कीर्तन महिं अनदिन जागा॥
परवा प्रीतम करहु बिचार । घट महिं खेले अघट अपार ॥
काल कल्पना कदे न खाइ । श्रादि पुरुप महि रहै समाइ ।।
दुतिया दुह करि जानै अंग । माया ब्रह्म रमै सब संग।
ना ओहु बढे न घटता जाइ । अकुल निरंजन एकै भाइ ।
तृतीया तीने सम करि ल्यावै । अानंद मूल परम पद पावै ॥
माध संगति उपजै विस्वास । बाहर भीतर सदा प्रगास ॥ .
चौथहि चंचल मन को गहहु ! काम क्रोध संग कबहु न बहहु ॥
जल थल माहें आपही अाप । आपै जपहु आपना जाप ।।



*एक दूसरे स्थान पर यह पद इस प्रकार आरंभ होता है "पड़ी आकबत कुमति तुम लागे शेष सब ज्यों का त्यों है। मूल प्रति में जो ३६ नंबर का पद है (पृष्ट १००) वह भी कुछ थोड़े से हेर फेर के साथ ऐसा ही है।