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कबीर-ग्रंथावली

हमरे कुल कौने रांम कह्यो।
जब की माला लई निपूते तब ते सुख न भयो ।।
सुनहु जिठानी सुनहु दिरानी अचरज एक भयो ।
सात सूत इन मुडिये खोये इहु मुडिया क्यों न मुयो ।।
सर्व सखा का एक हरि स्वामी सो गुरु नाम दयो।
संत प्रह्लाद की पैज जिन राखी हरनाखसु नख बिदरयो ।।
घर के देव पितर की छोड़ो गुरु को सबद लयो । .
कहत कबीर सकल पाप खंडन संतह लै उधरयो॥ १२६ ।।

निर्धन आदर कोइ न देई । लाख जतन करै ओहु चित न धरेई ।।
जौ निर्धन सरधन कै जाई । आगे बैठा पीठ फिराई।
जौ सरधन निर्धन कै जाई । दीया दर लिया बुलाई ।।
निर्धन सरधन दोनो भाई ! प्रभु की कला न मेटी जाई ।।
कहि कबीर निर्धन है सोई । जाकै हिरदे नाम न होई । १३०॥

पंडित जन माते पढ़ि पुरान ! जोगी माते जोग ध्यान ।।
संन्यासी माते अहमेव । तपसी माते तप के भेव ।।
सव मदमाते कोऊ न जाग । संग ही चोर घर मुसन लाग ।।
जागै सुकदेव अरु अकर । इयवन्त जागे धरि लंकूर ।।
संकर जागे चरन सेव । कलि जारे नामा जैंदव ।।
जागत सोवत बहु प्रकार । गुरु मुखि जागे सोइ सार ।।
इस देही के अधिक काम । कहि कबीर भजि रांम नाम ॥१३१॥

पंडिया कौन कुमति तुम लागे ।
बृडहुगे परवान सकल स्यो रांम न जपहु अभागे ।।
बेद पुरान पढ़े का किया गुन खर चंदन जस भारा ।
रांम नाम की गति नहिं जानी कैसे उतरसि पारा ।।
जीय बधहु सुधर्म करि थापहु अधर्म कहौ कत भाई ।
आपस कौ मुनि वर करि थापहु काकहु कहौ कसाई ।।