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परिशिष्ट

कहि कबीर रँगि राता । मिल्यो जग जीवन दाता ॥ ११६ ॥
दुनिया हुसियार बेदार जागत मुसियत है। रे भाई ।
निगम हुसियार पहरूआ देखत जम ले जाई॥
नींबु भयो आँबु आँबु भयो नींवा केला पाका झारि ।
नालिएर फल सेवरिया पाका मूरख मुगध गवार ।।
हरि भयो खाँडु रे तुमहि बिखरियो हसतो चुन्यो न जाइ ।
कहि कबीर कुल जाति पॉति तजि चींटी होइ चुनि खाई ॥११७॥
देखा भाई ज्ञान की आई आँधी।
सबै उड़ानी भ्रम की टाटी रहै न माया बाँधी ।।
दुचिते की दुइ थृनि गिरानी मोह बलेड़ा टूटा ।
तिष्णा छानि परी धर ऊपर दुमिति भाँडा़ फूटा ।।
आँधी पाछै जो जल वर्षै तिहि तेरा जन भोना ।
कहि कबीर मन भया प्रगासा उदय भानु जब चीना ॥११८॥
देइ मुहार लगाम पहिरावौ । सगल तजीनु गगन दौरावौ ॥
अपनै बिचारै असवारी कीजै । सहज कै पावडै़ पग धरि लीजै ।।
चलुरे बैकुंठ तुझहि ले तारौ । हित चित प्रेम के चाबुक मारौ।।
कहत कबीर भले असवारा । बेद कतेब ते रहहि निरारा ॥११९।।
देही गावा जीउ धर्म हत उबसद्दि पंच किरसाना !
नैनू नकटू स्रवनू रसपति इन्द्रो कह्या न माना ।
बाबा अब न बसहु इह गाउ।
घरी घरी का लेखा माँगै काइथु चेतू नाउ ।।
धर्मराय जब लेखा माँगै बाकी निकसी भारी।
पंच कृसनवा भागि गए लै बाध्यौ जीउ दरबारी ।।
कहहि कबीर सुनहु रे सन्तहु खेतहि करौ निबेरा ।
अब की बार बखसि बन्दे कौ बहुरि न भव जल फेरा ।।१२०॥
धन्न गुपाल धन गुरु देव । धन्न अनादि भूखे कब लुटह केव ।