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परिशिष्ट

करे गुमान चुभहि तिसु सूला कोउ काढ़न कौ नाही ।
अजै सुचोभ को बिलल बिलाते नरके घोर पचाही ।।
कौन नरक क्या स्वर्ग विचारा संतन दोऊ रादे ।
हम काहू की काणि न कढ़ते अपने गुरु परसादे ॥
अब तौ जाइ चढ़े सिंघासन मिलिहै सारंगपानी ।
रांम कबीरा एक भये हैं कोइ न सकै पछानी ।। ११० ।।

घरहर कंपै बाला जीउ । ना जानौ क्या करसी पांउ ।।
रैनि गई मति दिन भी जाइ । भवर गये बग बैठे आइ ॥
काचै करवै रहै न पानी । हंस चल्या काया कुम्हलानी ।।
कारी कन्या जैसे करत सिंगारा । क्यो रलिया मानै बाझ भतारा।।
काग उड़ावत भुजा पिरानी। कहि कबीर इह कथा सिरानी॥१११।।

थाके नयन स्रवण सुनि थाके थाकी सुंदरि काया ।
जरा हाक दो सब मति थाकी एक न थाकसि माया ।।
वावरे तैं ज्ञान बिचार न पाया । बिरथा जनम गँवाया ।
तब लगि प्रानी तिसे सरेबहु जब लगि घट मही सांसा।
जे.घट जाइत भाव न जासी हरि के चरन निवासा ॥
जिसकौ सबद बसावै अंतर चूकहि तिसहि पियासा ।
हुक्मै बूझै चौपड़ि खेलै मन जिन ढाले पासा ।।
जो जन जानि भजहि अविगति कौ तिनका कछू न नासा ।
कहु कबीर ते जन कबहुँ न हारहि ढालि जुजानही पासा।।११२॥

दरमादे ठाढ़े दरवारि।
तुझ बिन सुरति करै को मेरी दर्सन दीजै खोलि किवार ।।
तुम धन धनी उदार तियागी स्रवनन सुनियत सुजस तुमार ।
मांगौं काहि रंक सब देखौं तुम ही ते मेरो निसतार ।।
जयदेव नामा बिप्प सुदामा तिनकौ कृपा भई है अपार ।
कहि कबीर तुम समरथ दाते चारि पदारथ देत न बार ॥११३॥
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