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कबीर-ग्रंथावली

भरनौ मरन कहै मब कोई ।सहुजे मरै अमर होइ सोई।।
कहु कबीर मन भया अनंदा ।गया भरम रहा परमानंदा ॥८६॥
जिह सिमरनि होइ मुकित दुवार। जाहि बैकुंठ नही संसारि ।।
निर्भव कै घर बजावहि तूर। अनहद बजहि सदा भरपूर ।
ऐसा सिमरन कर मन माहि । बिनु सिमरन मुक्ति कत नाहि ॥
जिह सिमरन नाही ननकारु । मुक्ति करै उतरै बहुभारु ।।
नमस्कार करि हिरदय माहि । फिर फिर तेरा पावन नाहिं ।।
जिह सिमरन करहि तू केल । दीपक बांधि धरपी तिन तेल ।।
सो दीपक अमर कु संसारि । काम क्रोध विष काढिले मार ॥ .
जिह सिमरन तेरी गति होइ । सो सुमिरन रखु कंठ पिरोइ ।।
सो सिमरन करि नहीं राखु उतारि । गुरु परसादी उतरहि पार ।।
जिह सिमरन नाही तुहि कान | मंदर सावहि पटवरि तानि ।।
सेज सुखाली बिगस जीउ । सो सिमरन तू अनहद पीठ ।।
जिह सिमरन तेरी जाइ बलाई । जिह सिमरन तुझ पोहै न माई ।।
सिमरि सिमरि हरि हरि मन गाइयै।इह सिमरन सति गुरु ते पाइये।।
सदा सदा सिमरि दिन राति । ऊठत बैठत सासि गिरासि ।।
जागु सोई सिमरन रस भाग । हरि सिमरन पाइयै संजोग ।। .
जिह सिमरन नाहो तुझ भाऊ । सो सिमरन राम नाम अधारू ।
कहि कबीर जाका नहीं अंतु। तिसके आगे तंतु न मंतु ॥८७'।

जिहि मुखि पाँचौ अमृत खाये । तिहि मुख देखत लूकट लाये ।।
इक दुख राम राइ काटहु मेरा । अग्नि दहै अरु गरभ बसेरा ।।
काया बिगृति बहु बिधि माती । को जारे को गड़ले माटी ।
कहु कबीर हरि चरण दिखावहु । पाछे ते जम कों न पठावहु॥८८।।

जिह सिर रचि रचि बाँधत पाग । सो सिर चुंस सवारहि काग ॥
इसु तन धन को क्या गर्बीय्या । राम नाम काहे न दृढ़ीया ।।
कहत कबीर सुनहु मन मेरे । इही हवाल होहिंगे तेरे ॥८९॥