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परिशिष्ट

काकी मात पिता कहु काको कौन पुरुष की जोई।
घट फूटे कोऊ बात न पूछै काढहु काढहु होई ॥
देहुरी बैठी माता रौवै खटिया ले गये भाई।
लट छिटकाये तिरिया रोवै हंस इकेला जाई ।।
कहत कबीर सुनहु रे संतहु भैसागर कै ताई ।
इस बंदे सिर जुलम होत है जम नहीं घटै गुसाई ।। ७५ ।।
जब लग मेरी मेरी करै । तब लग काज एक नहि सरै ॥
जब मेरी मेरी मिटि जाई । तब प्रभु काज सवारहि आई ।।
ऐसा ज्ञान बिचारु मना । हरि किन सिमरहु दुःखभंजना ।।
जब लगि सिंघ रहै बन माहि । तब लग बन फूलई नाहि ॥ .
जब ही स्यार सिंघ कौ खाइ । फूल रही सगली बनराइ ।।
जीतो बूडै हारो तरै । गुरु परसादि पार उतरै ।
दास कबीर कहै समझाइ । केवल राम रहहु लिव लाइ ॥७६।।
जब हम एको एक करि जानिया। तब लोग काहे दुख मानिया ॥
हम अपतह अपनी पति खाई। हमरै खोज परहु मति कोई ॥
हमे मंदे मंदे मन माही। साँझ पाति काहू स्यों नाहीं ।।
पति मा अपति ताकी नहीं लाज । तब जानहु गे जब उघरै गोपाज ॥
कहु कबीर पति हरि पखानु । सरब त्यागि भजु केवल रामु ॥ ७७ ।।
जल महि मीन माया के वेधे । दीपक पतंग माया के छेदे ॥
काम माया कुंचर को व्यापै । भुअंगम भृंग माया माहि खापै ॥
माया ऐसी मोहनी भाई । जेते जीय तेते डहकाई ॥
पंखी मृग माया महि राते । साकर मांखी अधिक संतापे ॥
तुरे उष्ट माया महि भेला । सिध चौरासी माया महि खेला ॥
छिय जती माया के बन्दा । नवै नाथु सूरज अरु चंदा ॥
तपे रखीसर माया महि सूता । माया महि काल अरु पंच दूता॥
स्वान स्याल माया महि राता । बंतर चीते अरु सिंघाता ।।