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कबीर-ग्रंथावली

नयन देखि पतंग उरझै पसु न देखै आगि ।
काल-फास न मुगध चेतै कनिक कामिनि लागि ।
करि बिचारि बिकार परिहरि तरन तारन सेाइ ।
कहि कबीर जग जीवन ऐसा दुतिया नहीं कोइ ।। ७२ ।।

जन्म मरन का भ्रम गया गोविंद लिव लागी ।
जीवत सुन्नि समानिया गुरु साखी जागी ।।
कासी ते धुनि ऊपजै धुनि कासी जाई।
कासी फूटी पंडिता धुनि कहाँ समाई ।।
त्रिकुटी संधि में पेखिया घटहू घट जागी।
ऐसी बुद्धि समाचरी घट माहिं तियागी ।
आप आप ते जानिया तेज तेज समाना ।
कहु कबीर अब जानिया गोबिंद मन माना ।। ७३ ।।

जब जरियै तब होइ भसम तन रहै किरम दल खाई ।
काची गागरि नीर परतु है या तन की इहै बडाई ॥
काहे भया फिरतो फूला फूला ।
जब इस मास उरध मुख रहता सो दिन कैसे भूला ॥
ज्यों मधु मक्खी त्यों सठोरि रसु जारि जोरि धन कीया।
मरती बार लेहु लेहु करियै भूत रहन क्यों दीया ।
देहुरी लौं वरी नारि संग भई आगै सजन सुहेला ।
मरघट लौं सब लागे कुटुंब भयो आगे हंस अकेला ॥
कहत कबीर सुनहु रे प्रानी परे काल ग्रस कूमा।
झूठी माया आप बँधाया ज्यों नलनी भ्रमि सूआ ॥ ७४ ।।

जब लग तेल दीवे मुख बाती तब सूझै सब कोई ।
तेख जलै बाती ठहरानी सुना मंदर होई ॥
रे बौरे तुहि घरी न राखै कोई । तूं राम नाम जपि सोई।।