पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३६९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८५
परिशिष्ट

चार पाव दुइ सिंग गुंग मुख तब कैसे गुन गैहै ।
ऊठत बैठत ठेगा परिहै तब कत मूड लुकै है ।।
हरि बिन बैल बिराने है है।
फाटे नाक न टूटै का धन कोदौ को भुम खैहै ॥
सारो दिन डोलत बन महिया अजहु न पैट अघैहै ।
जन भगतन को कहो न मानो कीयो अपनो पैहै !।
दुख सुख करत महा भ्रम वूडौ अनिक योनि भरमैहै ।
रतन जनम खोयो प्रभु विसरयो इह अवसर कत पैहै ।।
भ्रमत फिरत तेलक के कपि ज्यों गति बिनु रैनि बिहैहै ।
कहत कबीर राम नाम विनु मूंड धुनै पछितैहै ।।६६॥
चारि दिन अपनी नौबति चले वजाइ।
इतन कु खटिया गठिया मटिया संगि न कछु लै जाइ ।।
देहरी बैठी मेहरी रोवै हारे लौ संग माइ।
मरहट लगि सब लोग कुटुब मिलि हंस इकेला जाइ ।।
वैसु तबै वितबै पुर पाटन बहुरि न देखै आई।
कहत कबीर राम की न सिमरहु जन्म अकारथ जाई ।। ७० ।।
चोवा चंदन मर्दन अंगा। सो तन जलै काठ कै मंगा।।
इसु तन धन की कौन वड़ाई । धरनि परै उरवारि न जाई ।।
रात जिसोविहि दिन करहि काम । इक खिन लेहि न हरि को नाम ।।
हाथि त डोर मुख खायो नंबोर । मरती बार कसि बाँध्यो चोर ।।
गुरु मति रहि रसि हरि गुन गावै । रामै राम रमत सुख पावै।।.
किरपा करि कै नाम दृढ़ाई । हरि हरि बास सुगंध बसाई ।।
कहत कबीर चेत रे अंधा । सत्य राम झूठा सब धंधा ।। ७१ ॥
जग जीवन ऐसा सुपने जैसा जीवन सुपन समान ।
साचु करि हम गाँठ दीनी छोड़ि परम निधानं ।
बाबा माया मोह हितु कीन । जिन ज्ञान रतन हिरि लीन ।