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परिशिष्ट

सहस कोटि बहु कहत पुरान । दुर्योधन का मथिया मान ॥
कंद्रप कोटि जाकै लवै न धरहि । अंतर अंतरि मनसा हरहि ।।
कहि कबीर सुनि सारंगपान । देहि अभयपद मानौ दान ॥४८॥
कोरी को काहू मरम न जाना । सब जग आन तनायो ताना ॥
जब तुम सुनि ले बेद पुराना । तब हम इतन कुप सरयो ताना ।।
धरनि अकाश की करगह बनाई। चंद सुरज दुइ साथ चलाई ।।
पाई जोरि बात इक कीनी तह ताती मन माना ।
जोलाहे घर अपना चीना घट ही राम पछाना ।।
कहत कबीर कारगह तोरी। सूतै सूत मिलाये कोरी ||४६।।'
कौन काज सिरजे जग भौतरि जनमि कौन फल पाया।
भव निधि तरन तारन चितामनि इक निमप न इहु मन लाया ।।
गोविंद हम ऐसे अपराधी।
जिन प्रभु जीउ पिंड था दोया तिप्त की भाव भगति नहिं साधी ।। .
परधन परतन परतिय निंदा पर अपवाद न छूटै ।
आवागमन होत है फुनि फुनि इहु पर संग न छूटै ।।
जिह घर कथा होत हरि संतन इक निमष न कीनो मैं फेरा ।
लंपट चोर धूत मतवारे तिन सँगि मदा बसेरा ।
काम क्रोध माया मद मत्सर ए सम्पै मो माही ।
दया धर्म ओ गुरु की सेवा ए सुपनंतरि नाही ।।
दोन दयाल कृपाल दमोदर भगति बछल भैहारी।
कहत कबीर भीर जनि राखहु हरि सेवा करौ तुमारी ॥ ५० ॥
कौन को पूत पिता को काकौ । कौन मेरे को देइ संतापो ।।
हरि ठग जग को ठगौरी लाई । हरि के वियोग कैसे जियो मेरी माई ।।
कौन को पुरुष कौन की नारी । या तत लेहु सरीर बिचारी ॥
कहि कबीर ठग स्यों मन मान्या । गई ठगौरी ठग पहिवान्या ।।५१।।
क्या जप क्या तप क्या व्रत पूजा । जाकै रिदै भाव है दूजा ॥