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कबीर-ग्रंथावली

नाचन सोइ जु मन स्यों नाचै । झूठ न पतियै परचै साचै ।।
इसु मन आगे पूरै ताल । इसु नाचन के मन रखवाल ।।
बाजारी सो बजारहि सोधे । पाँच पलीतह को परबोधै ।
नव नायक की भगति पछाने । सो बाजारी हम गुरु माने ।।
तस्कर सोइ जिता तित करै । इन्द्रो के जतनि नाम ऊचरै ।।
कहु कबीर हम ऐसे लक्खन । धन्न गुरुदेव अति रूा बिवक्खन ॥४६
कोऊ हरि समान नहीं राजा ।
ए भूपति सव दिवस चारि के झूठे करत दिवाजा ।।
तेरो जन होइ सोइ कत डोले तीनि भवन पर छाजा ।
हाथ पसारि सके को जन को बोलि सके न अंदाजा ।।
चेति अचेति मूढ़ मन मेरे बाजे अनहद बाजा।
कहि कबीर संसा भ्रम चूको ध्रु प्रह्लाद निवाजा ।। ४७ ।।
कोटि सूर जाकै परगास । कोटि महादेव अरु कविलाल ।।
दुर्गा कोटि जाकै नर्दन कर । ब्रह्मा कोटि बेद उच्चरै ।।
जौ जाचौं ती कंवल राम । भान देव स्यो नाहीं काम ।
कोटि चंद्र में करहि चराक । सुरते तीसौ जेवहि पाक ।।
नव ग्रह कोटि ठाढ़े दरबार : धर्म कोटि जाके प्रतिहार ।।
पवन कोटि चौबारे फिरहिं । बासक कोटि सेज विस्तरहिं ।।
समुद कोटि जाके पानीहार । रामावाल कोटि अठारहि भार ॥
कोटि कुवेर भरहि भंडार । कोटिक लखमी करै सिंगार ।।
कोटिक पाप पुन्न बहु हिराहि । इद्र कोटि जाके सेवा करहि ॥
छप्पन कोटि जाके प्रतिहार । नगरी नगरी खियत अपार ।।
लट छूटी वरतै बिकराल । कोटि कला खेलै गोपाल ।।
कोटि जा जाकै दरवार । गंध्रव कोटि करहि जयकार !!
विद्या कोटि सबै गुन कहै । ताऊ पारब्रह्म का अंत न लहै ।।
बावन कोटि जाकै रोमावली । रावन सैना जह ते छली ।।