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परिशिष्ट

अहि रख बादु न कीजै रे मन।सुकृत करि करि लीजै रे.मन।।
कुमारै एक जु माटी गूंधी बहु बिधि बानी लाई ।
काह महि मोती मुकताहल काहू व्याधि लगाई ।।
समहि धन राखन कौं दीया मुगध कहै धन मेरा।
जम का डंड मूंड महि लागै खिन महि करै निबेरा ।
हरि जन ऊतम भ त सदावै आज्ञा मन सुख पाई।
जो तिसु भावै सति करि मानै भाणा मंत्र बसाई ।।
कहै कबीर सुनहु र सतहु मेरी मेरी झूठी ।
चिरगट फारि चटारा लै गयो तरी तागरी अटी ।। ४३।।
किनही वनज्या कांसा ताबा किनहीं लौंग सुपारी ।
संतहु बनज्या नाम गोविंद का ऐसी खेप हमारी ।
हरि के नाम के व्यापारी ।
हीरा हाथ चढ़या निर्मोलक बूटि गई संसारी ।
सांचे लाए तो सच लागे सांचे के व्यापारी ।
सांची वस्तु के भार चलाए पहुँचे जाइ भंडारी ॥
आपहि रतन जवाहर मानिक आपै है पासारी ।
आपै है दस दिसि आप चलावै निहचल है ब्यापारी ।।
मन करि बैल सुरति करि पैडा ज्ञान गोनि भरि डारी ।
कहत कबीर सुनहु रे संतहु निबही खेप हमारी ।।४४ ॥

कियो सिंगार मिलन के ताईं । हरि न मिले जग जीवन गुसाईं ।
हरि मेरो पिरहौ हरि की बहुरिया। राम बड़े मैं तनक लहुरिया ॥
धनि पिय एकै संग बसेरा । सेज एक पै मिलन दुहेरा ॥
धन्न सुहागनि जो पिय भावै।कहि कबीर फिर जनमि न आवै।।४५॥
कूटन सोइ जु मन को कूटै । मन कूटै तो जम ते छूटै ॥
कुटि कुटि मन कसवही लावै । सो कूटनि मुकति बहु पावै ।।
कूटन किसै कहहु संसार । सकल बोलन के माहि बिचार ॥