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कबीर-ग्रंथावली

अापन कीया कळू न होवै क्या को करै परानी ।
जाति सुभावै सति गुरु भेटै एको नाम बखानी ।।
बलुवा के घरुआ मैं बसते फुलवत देह अयाने ।
कहु कबीर जिद्द राम न चेत्यो बूड़े बहुत सयाने ॥ ४० ॥
काया कलालनि लादनि मेला गुरु का सबद गुड़ कीनु रे ।
विना काम क्रोध मद मतसर काटि काटि कसु दीनु रे ।।
कोई हेरै संत सहज सुख अंतरि जाको जप तप देउ दलाली रे।
एक बूंद भरि तन मन देवो जो मद देइ कलाली रे ।।
भवन चतुरदस भाटी कीनी ब्रह्म अगिन तन जारी रे !
मुद्रा मदक सहज धुनि लागी सुखमन पोचनहारी र !
तीरथ बरत नेम सुचि संजम रवि ससि गहने देर रे ।
सुरति पियास सुधारसु अमृत एहु महारसु पेउ रे ।।
निरझर धार चुनी अति निर्मल इह रस मनुआ रातो रे ।
कहि कबीर सगले मद छूछे इहै महारह साचो रे ।। ४१ ।।
कालवूत की हस्तनी गन वारा रे चलत रच्यो जगढोस ।
काम सुजाइ गज वसि परे मन चौरा रे अंकसु सहियो सीस ।।
विषय बाचु हरि राचु सम झुमन बोरा रे ।
निर्भय होइ न हरि भजे मन बोरा रे गह्यो न राम जहाज ।।
मर्कट मुष्टी अनाज को मन वैरा रे लीनी हाथ पसारि ।
छूटन की संसा परया मन बौरा रे नाच्यो घा घर वारि ।।
ज्यो नलनी सुअटा गह्यो मन बौरा रे माया इहु व्याहारू ।
जैसा रंग कसुंम का मन बौरा रे त्यों पसरसो पासारू ।।
न्हावन को तीरथ घने मन बौरा रे पूजन को बहु देव ।
कहु कधीर छूट न नहीं मन बौरा रे छूट न हरि की सेव ॥४२॥
काहू दीने पाट पटम्बर काहू पलघ निवारा।
काहू गरी गादरी नाही काहू खान परारा ।।