पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३५९

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परिशिष्ट

कंचन स्यो पाइयै नहीं तोलि । मन दे राम लिया है मोलि ।'
अब मोहिं राम अपना करि जान्या। सहज सुभाइ मेरा मन मान्या।।
ब्रह्म कथि कथि अंत न पाया। राम भगति वैठे घर आया ।
कहु कबीर चंचल मति त्यागी।केवल राम भक्ति निज भागी ।।३६।।

कत नहीं ठौर मूल कत लावी । खोजत तनु महि ठौर न पावौ ।।
लागी होइ सो जानै पीर । राम भगत अनियाले तीर ॥
एक भाइ देखौ सब नारी । क्या जाना सह कौन पियारी ।।
कहु कबीर जाके मस्तक भाग।सब परिहरि ताको मिले सुहाग ।।३७॥

करवतु भला न करवट तेरी । लागु गले सुन विनती मेरी ।।
है। बारी मुख्य फेरि पियारे । करवट दे मोकौ काहे कौ मारे ।।
जौ तन चौरहि अंग न मोरौ । पिंड परै तौ प्रीति न तोरौ।
हम तुम बीच भयो नहीं कोई । तुमहि सुकंत नारि हम सोई ।।
कहत कबीर सुनहु रे लोई । अब तुमरी परतीति न होई ।। ३८।।

कहा स्वान कौ सिमृति सुनाये। कहा साकत पहि हरि गुन गाये ॥
राम राम राम रमे रमि रहियै । साकत स्यों भूलि नहीं कहियै ।
कौआ कहा कपूर चराये । कह विसियर कौ दूध पिाये ।।
सत संगति मिलि बिवेक बुधि होई । पारस परस लोहा कंचन सोई ।।
साकत स्वान सब करै कहाया। जो धुरि लिख्या सुकरम कनाया ।।
अमिरत लै लै नीम सिचाई। कहत कबीर वाको सहज न जाई ।।३९।।

काम क्रोध तृष्णा के लीने गति नहि एकै जानी ।
फूटी आँखै कछू न सूझै बूड़ि मुये बिनु पानी ।।
चलत कत टेढ़ टेढ़े टेढ़े।
अस्थि चर्म बिष्टा के मूंदे दुरगंधहि के बेढ़े ।
रांम न जपहु कौन भ्रम भूले तुमते काल न दूरे।
अनेक जतन करि इह तन राखहु रहै अवस्था पूरे ।।