'मोर मोर करि अधिक लाडु धरि पेखत ही जमराउ हसै ।
ऐसा ते जगु भरम भुलाया । कैसे बूझे जब मोह्या है माया ॥
कहत कबीर छोड़ि विषया रस इतुं संगति निहचौ मरना ।
रमय्या जपहु प्राणी अनत जीवण वाणी इन विधि भवसागर तरना।।
जांति सुभावै ता लागै भाउ । भर्म भुलावा विचहु जाइ ।।
उपजै सहज ज्ञान मति जागै । गुरु प्रसादि अंतर लव लागै ।।
इतु संगति नाही मरणा: हुकम पछाणि ता खस मै मिलणा !३२।।
ऐसा अचरज देख्या कबीर । दधि के भोलै बिरोले नीर ॥
हरी अंगूरी गदहा चरै । नित उठि हासै हीगै मरै ॥
माता भैसा अम्मुहा जाइ । कुदि कुदि चरै रसातल पाइ ।।
कहु कवोर परगट भई खेड । लं ले को चूचे नित भेड ।।
राम रमत मति परगटि आई । कहु कबीर गुरू सोझी पाई ।३३।।
ऐसा इह संसार पंखना रहन न कोऊ पैहै रे।
सूर्ध सूधं रेंगि चल हु तुम नतर कुधका दिवहै रे ।।
बार बूढ़े तरुने भैया सबहु जम ले जैहै रे ।
मानस वपुरा मूमा कीनी मीच विलेया खैहै रे ॥
धनवंता अरु निर्धन मनई ताको कड़न कानी रे।
राजा परजा सम करि मार ऐसो काल बड़ानी रे ।।
हरि के सेवक जो हरि भाये तिनकी कथा निरारी रे ।
प्रावहि न जाहि न कबहूँ मरते पारब्रह्म संगारी रे ।
पुत्र कलत्र लच्छमी माया इहै तजहु जिय जानी । .
कहत कबीर सुनहु रे संतहु मिलिह सारंगपानी रे ॥ ३४ ॥
ओई जु दीसहि अंबरि तारे । किन ओइ चीते चीतन हारे ।।
कहुरे पंडित अंवर कास्या लागा । बूझ बूझनहार सभागा॥
सूरज चंद करहिं उजियारा । सब महि पसरसा ब्रह्म पसारमा ।
कहु कवीर जानेगा सोई । हिरदै राम मुखि रामै होई ।। ३५ ।।
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कबीर-ग्रथावली