पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३५७

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परिशिष्ट

गुरु प्रसादि जिहि बूझिया प्रासा ते भया निरास ।
सब सचुन दरि प्राइया जी आतम भया उदास ।।
राम नाम रस चाखियां हरि नामा हरितारि ।
बहु कबीर कंचन भया भ्रम गया समुद्र पारि ॥ २६ ॥
एक कोट पंचसिक दारा पंचे माँगहि हाला।
जिमि नाही मैं किसी की बोई ऐसा देन दुखाला ।
हरि के लोगा माको नीति उसै पटवारा !
ऊपर भुजा करि मैं गुरु पहि पुकारा तिन हौ लिया उबारी ।
नव डाडी दम मुंमफ धावहि रइयति बसन न देही ।
डोरी पूरी मापहि नाही बहु विष्टाला लेही ।।
वहतरि घर इक पुरुष समाया उन दीया नाम लिखाई।
धर्मराय का दफ्तर साध्या बाकी रिज मन काई।
संता को मति कोई निदहु संत राम है एको।
कहु कबीर मैं सो गुरु पाया जाका नाउ बिबेको ।। ३०॥
एक ज्योति एका मिली किम्वा होइ महोइ ।
जितु घटना मन उपजै फूटि मरै जन सोइ ।।
सावल सुंदर रामय्या मेरा मन लागा तोहि ।
साधु मिलै सिधि पाइये कियेहु योग कि भोग !
दुहु मिले कारज ऊपजै राम नाम संजोग ।।
लोग जानै इहु गीत है इदु तो ब्रह्म विचार ।
ज्यो कासी उपदेस होइ मानस मरती बार ।।
कोई गाकै को सुनै हरि नामा चितु लाइ ।
कहु कबीर संसा नहीं अंत परम गति पाइ ।। ३१ ।।
एक स्वान के घर गावण ।।
जननी जानत सुत बड़ा होत है।
इतना कुन जानै जि दिन दिन अवध घटत है।