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परिशिष्ट

अचरज एक सुनहु रे पंडिया अब किछु कहन न जाई।
सुर नर गन गंध्रव जिन मोहे त्रिभुवन मेखलि लाई ॥
राजा राम अनहद किंगुरी बाजै । जाकी दृष्टि नाद लव लागै ।।
भाठी गगन सिडिया अरु चुंडिया कनक कलस इक पाया।
तिस महि धार चुए अति निर्मल रस महि रस न चुआया ।
एक जु बात अनूप बनी है पवन पियाला साजिया।
तीन भवन महि एको जोगी कहहु कवन है राजा ।।
ऐसे ज्ञान प्रगट्या पुरुपोत्तम कहु कबीर रॅगराता ।
और दुनी सब भरमि भुलानी मन राम रसाइन माता ।। ४ ।।

अनभौ कि नैन देखिया बैरागो अड़े ।
विनु भय अनभी होइ वणा हंबै ।।
सहुह दृरि देखैं ताभौं पवै बैरागी अड़े।
हुक्मै बूझै न निर्भक होइ न वणा इंबै ।।
हरि पाखंड न कीजई बैरागी अड़े।
पाखंडि रता सब लोक बड़ा हंबै ।।
तृष्णा पास न छोड़ई बैरागा अड़े।
ममता जाल्या पिंड बणा हंबै ।।
चिन्ता जाल तन जालिया बैरागो अड़े।
जे मन मिरतक होइ बणा हबै ।।
सत गुरु बिन बैराग न होवई बैरागी अड़े।
जे लोचै सब कोई बणा हंबै ।।
कर्म होवै सति गुरु मिलै बैरागो अड़े।
सहजे पावै सोइ वणा हंबै ॥
कहु कबीर इक बेनती बैरागी अड़े।
मौकी भव जल पारि उतारि बड़ा हंबै ॥५॥