पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३४८

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(२)पदावली

अंतरि मैल जे तीरथ न्हावै तिसु बैकुंठ न जाना।
लोक पतीणे कछू न होवै नाही राम अयाना ॥
पूजहू राम एकु ही देवा । साचा नावण गुरु की सेवा ।।
जल कै मज्जन जे गति होवै नित नित मेडुक न्हावहि ।
जैसे मेडुक तैसे ओइ नर फिरि फिरि जोनी आवहि ।।
मनहु कठोर मरै वानारस नरक न बाँच्या जाई ।
हरि का संत मरै हांडवैत सगली सैन तराई ।।
दिन सुरैनि बेद नही सासतर तहां बसै निरंकारा।
कहि कबीर नर तिसहि धियावहु वावरिया संसारा ॥ १ ॥
अंधकार सुख कबहिं न सोइहै। राजा, रंक दोऊ मिलि रोइहै।
जौ पै रसना राम न कहिबो । उपजत बिनसत रोवत रहिबो ॥
जस देखिय तरवर की छाया। प्रान गये कहु काकी माया ॥
जस जंती महि जीव समाना । मुये मर्म को काकर जाना ॥
हंसा सरवर काल सरीर । राम रसाइन पीउ रे कबीर ॥२॥
अग्नि न दहै पवन नही मगनै तस्कर नेरि न आवै ।
राम नाम धन करि संचौनी सो धन कतही न जावै ।।
हमरा धन माधव गोबिन्द धरनीधर इहै सार धन कहियै ।
जो सुख प्रभु गोबिंद की सेवा सो सुख राज न लहियै ।।
इसु धन कारण सिव सनकादिक खोजत भये उदासी ।
मन मकुंद जिह्वा नारायन परै न जम की फाँसी ॥
निज धन ज्ञान भगति गुरु दीनी तासु सुमति मन लागी।
जलत अंग थंभि मन धावत भरम बंधन भौ भागी॥
कहै कबीर मदन के माते हिरदै देखु बिचारी।
तुम घर लाख कोटि अस्व हस्ती हम घर एक मुरारी ॥ ३॥