पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३४२

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२५८ कबीर-ग्रंथावली 'मारे बहुत पुकारिया पीर पुकार और । लागी चोट मरम्म की रह्यो कबीरा ठौर ॥११५ ॥ मुकति दुआरा संकुरा राई दसए भाइ । मन तौ मैगल होइ रह्यो निकस्यो क्यों के जाइ ॥११६।। मुल्ला मुनार क्या चढहि सांई न बहरा होइ । जो कारन तू बॉग देहि दिल ही भीतरि जोइ ॥११७॥ मुहि मरने का चाउ है मरौं तौ हरि के द्वार । मत हरि पूछे को है परा हमार बार ॥११८।। कबीर मेरी जाति को सब कोइ हँसनेहारु । बलिहारी इसु जाति को जिह जपियो सिरजनहारु ।।११।। कबीर मेरी बुद्धि को जमु न करै तिसकार । जिन यह जमुआ सिरजिया सु जपिया परविदगार ॥१२०॥ कबीर मेरी सिमरनी रसना ऊपरि रामु । आदि जगादि सगल भगत ताको सुख विस्रामु ॥१२१।। यम का ठेगा बुरा है ओह नहिं सहिया जाइ । एक जु साधु मोहि मिल्यो तिन लीया अंचल लाइ ॥१२२।। कबीर यह चेतानी मत सह सारहि जाइ । पाछै भोग जु भोगवै तिनको गुड़ लै खाइ ॥ १२३ ।। रस को गाढ़ो चूसियै गुन को मरिर रोइ । अवगुन धारे मानसै भलो न कहियै कोइ ॥१२४।। कबीर राम न चेतियो जरा पहुच्यो आइ । लागी मंदर द्वारि ते अब क्या काठ्या जाइ ॥१२॥ कबीर राम न चेतियो फिरिया लालच माहि । .पाप करंता मरि गया औध पुजी खिन माहि ॥१२६॥ कबीर राम न छोड़िये तन धन जाइ त जाउ । घरन कमल चित बेधिया रामहि नामि समाउ ।।१२७॥