पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३४१

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परिशिष्ट

भार पराई सिर चरै चलियो चाहै बाट ।
अपने भारहि ना डरै आगै औघट घाट ॥१०२॥
कबीर मन निर्मल भया जैसा गंगा नीर ।
पाछै लागो हरि फिरहि कहत कबीर कबीर ॥१०३।।
कबीर मन पंखी भयो उड़ि उड़ि दह दिसि जाइ ।
जो जैसी संगति मिलै सो तैसो फल खाइ ॥१०४।।
कबीर मन मूड्या नहीं केस मुड़ाये काइ ।
जो किछु किया सो मन किया मुंडामुंड अजाइ ।।१०५॥
मया तजी तौ क्या भया जौ मानु तज्या नहि जाइ।
मान मुनी मुनिबर गले मानु सबै कौ खाइ ॥१०६।।
कबीर महदी करि घालिया आपु पिसाइ पिसाइ ।
तैसेइ बात न पूछियैं कबहु न लाई पाइ ॥१०७॥
माई मूढहु तिह गुरु जाते भरमु न जाइ ।
आप डुबे चहु बेद महि चेले दिये बहाइ ॥१०८।।
माटी के हम पूतरे मानस राख्यो नाउ ।
चारि दिवस के पाहुने बड़ बड़ रूधहि ठाउ ॥१०८।।
मानस जनम दुर्लभ है होइ न बारै बारि ।
जौ बन फल पाके भुइ गिरहि बहुरि न लागै डारि ॥११०॥
कबीर माया डोलनी पवन झकोस्लनहारु ।
संतहु माखन खाइया छाछि पियै संसारु ।।१११।।
कबीर माया डोलनी पवन बहै हिवधार ।
जिन बिलोया तिन पाइया अवन बिलोवनहार ॥११२॥
कबीर माया चोरटी मुसि मुसि लावै हाटि ।
एकु कबीरा नाम से जिन कीनी बारह बाटि ॥११३॥ .
मारी मरौ कुसंग की केले निकटि जु बेरि ।
उह भूलै उह चीरियै साकत संगु न हेरि ॥११४॥