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कबीर-ग्रंथावली

जौ मैं चितवौ ना करै क्या मेरे चितवे होइ।
अपना चितव्या हरि करै जो मेरे चित्ति न होइ ।। ६३ ।।
जोर किया सो जुलम है लेइ जवाब खुदाइ ।
दफतर लेखा नीकसै मार मुहै मुह खाइ ।। ६४ ॥
जो हम जंत्र बजावते टूटि गई सब तार ।
जंत्र बिचारा क्या कर चले बजावनहार ।। ६५ ।।
जौ गृह कर हित धर्म करु नाहिं त करु बैरागु ।
बैरागी बंधन करै ताको बड़ा अभागु ॥ ६६ ।।
जौ तहि साध पिरम्म की सीस काटि करि गोइ।
खेलत खेलत हाल करि जो किछु होइ त होइ ॥ ६७ ।
जौ तुहि साध पिरम्म की पाके सेती खेलु ।
काची सरसो पेलि कै ना खलि भई न तेलु ॥ ६८ ।।
कबीर झंखु न झखिये तुम्हरौ कह्यो न होइ ।
कर्म करीम जु करि रहे मेटि न साकै कोइ ।। ६६ ॥
टालै टोलै दिन गया ब्याजु बढ़ता जाइ।।
ना हरि भज्यो ना खत फट्यो काल पहूंचो प्राइ ।। ७० ।।
ठाकुर पूजहि मोल ले मन हठ तीरथ जाहि ।
देखा देखो स्वाँग धरि भूले भटका खाहि ।। ७१ ॥
कबीर डगमग क्या करहि कहा डुलावहि जीउ ।
सर्व सूख की नाइ को राम नाम रस पीउ ।। ७२ ॥
डूबहिगो रे बापुरे बहु लोगन की कानि ।
पारोसी के जो हुआ तू अपने भी जानि ।। ७३ ।।
डूबा था पै उब्बरसो गुन की लहरि झबकि ।
जब देख्यो बेड़ा जरजरात तब उतरि परयो हैं। फरक्कि ॥ ७४ ॥
तरवर रूपी रामु है फल रूपी बैरागु।
छाया रूपी साधु है जिन तजिया बादु बिबादु ।। ७५ ।।